बैंकों की तस्‍वीर बदलने के लिए करने होंगे कारगर उपाय, तभी बनेगा काम

हाल ही में बैंक ऑफ महाराष्ट्र के कळ्छ शीर्ष अधिकारियों की गिरफ्तारी की खबरें आईं, जबकि आइसीआइसीआइ बैंक में चंदा कोचर का मामला लगातार चल ही रहा है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Thu, 28 Jun 2018 11:32 AM (IST) Updated:Thu, 28 Jun 2018 11:32 AM (IST)
बैंकों की तस्‍वीर बदलने के लिए करने होंगे कारगर उपाय, तभी बनेगा काम
बैंकों की तस्‍वीर बदलने के लिए करने होंगे कारगर उपाय, तभी बनेगा काम

[सुषमा रामचंद्रन]। बैंकिंग इंडस्ट्री का संकट निकट भविष्य में खत्म होता नजर नहीं आता। हाल ही में बैंक ऑफ महाराष्ट्र के कुछ शीर्ष अधिकारियों की गिरफ्तारी की खबरें आईं, जबकि आइसीआइसीआइ बैंक में चंदा कोचर के पति के वीडियोकॉन के साथ जुड़ाव का मामला लगातार चल ही रहा है। इसके साथ-साथ बैंकों को हजारों करोड़ रुपये का चूना लगाकर विदेश भागे नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के मामले भी हैं और बैंकिंग सेक्टर पर एनपीए के भारीभरकम बोझ की खबरें भी लगातार आती रहती हैं। हालांकि इस संदर्भ में कुछ हालिया घटनाक्रमों पर बैंकिंग नियामक निकायों व सरकार द्वारा जिस तरह किंचित अतिरंजित प्रतिक्रियाएं दी गईं, उन्हें भी अच्छा नहीं कहा सकता। ऐसा लगता है कि समस्याओं के प्रति समग्र नजरिया अपनाने के बजाय हड़बड़ी में कार्रवाई करते हुए कुछ लोगों को बलि का बकरा बना दिया गया।

धरपकड़ में नाकामयाब

हाल ही में बैंक ऑफ महाराष्ट्र के कुछ शीर्ष अधिकारियों की गिरफ्तारी ऐसा ही मामला लगता है। यह हैरतनाक है कि हमारा सिस्टम उन ताकतवर उद्योगपतियों की धरपकड़ में नाकामयाब है, जिन्होंने हमारे वित्तीय तंत्र के साथ हजारों करोड़ की धोखाधड़ी की और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों को पकड़ा जा रहा है, जो अपनी ड्यूटी करते हैं। बेहतर तो यह होता कि इंडियन बैंक एसोसिएशन (आइबीए) बैंकरों के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर विचार के लिए कमेटी गठित करती, उसके बाद ही उनकी गिरफ्तारी जैसे नाटकीय कदम उठाए जाते। बैंक ऑफ महाराष्ट्र मामले में पुणो में पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा एक रीयल एस्टेट कारोबारी द्वारा निवेशकों से धोखाधड़ी के मामले की जांच कर रही थी और उसे कर्ज देने के कारण इस पब्लिक सेक्टर बैंक को भी जांच के दायरे में लिया गया। 1मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि हमारे बैंकिंग तंत्र में उपचारात्मक सुधारों की दरकार नहीं है। बिलकुल है, लेकिन बैंकों में सुधार इस तरह तो नहीं होंगे कि बैंक अधिकारियों को निशाना बनाया जाए, जबकि वे तो सिर्फ अपना काम करते हैं। यहां पर यह इंगित करना जरूरी है कि सिस्टम में व्याप्त कई व्याधियां पब्लिक सेक्टर बैंकों पर राजनीतिक नियंत्रण की वजह से हैं।

सलाखों के पीछे

अब यह व्यापक मान्यता है कि हमारे बैंक एनपीए के रूप में फंसे कर्जो के जिस बोझ से कराह रहे हैं, ऐसे ज्यादातर कर्जे पूर्ववर्ती यूपीए और मौजूदा एनडीए के राज में प्रभावशाली राजनेताओं के दबाव की वजह से दिए गए। इस पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर ऐसे कितने राजनेताओं को सलाखों के पीछे भेजा गया या भेजने की तैयारी है, जिन्होंने बैंक अधिकारियों को फोन कर किन्हीं खास व्यक्तियों या फर्म को कर्ज देने के लिए दबाव डाला हो? इस संदर्भ में निजी बैंकों की कार्यप्रणाली पर भी गौर करें। आइसीआइसीआइ की चीफ एक्जीक्यूटिव चंदा कोचर का मामला यहां प्रासंगिक है। बैंकिंग सेक्टर की एक चमकदार शख्सियत रहीं चंदा कोचर को बीते सालों में देश के इस सबसे बड़े निजी बैंक को प्रभावी ढंग से संभालने के लिए खूब सराहना मिली। लेकिन उनके पति द्वारा वीडियोकॉन के साथ किए गए वित्तीय सौदों और बाद में उस कंपनी को आइसीआइसीआइ बैंक द्वारा कर्ज दिए जाने की खबरों ने उनकी उपलब्धियों पर ग्रहण लगा दिया।

आरोपों की निष्पक्ष जांच-पड़ताल

इस मामले में बेहतर तो यही था कि आरोपों की निष्पक्ष जांच-पड़ताल की खातिर वह तुरंत पद छोड़ देतीं। लेकिन कहना होगा कि इस मामले में बैंक बोर्ड द्वारा उनके छुट्टी पर जाने पर जोर दिए जाने के बावजूद उन्हें पर्याप्त गुंजाइश दी गई। दूसरी ओर हमने देखा है कि ऐसे ही हालिया कुछ मामलों में जांच एजेंसियों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कर्मियों के खिलाफ किस तरह सख्त बर्ताव किया गया। आइसीआइसीआइ बैंक के मामले से सीबीआइ भी जुड़ी है, लिहाजा यह गंभीर मामला है, भले ही इसमें कुछ भी निकले। ऐसे में किसी को तो यह सुनिश्चित करना ही होगा कि सार्वजनिक व निजी, दोनों क्षेत्र के बैंक कर्मचारियों के लिए ऐसे मामलों में एक समान नियम-कायदे हों और उनसे समान ढंग से निपटा भी जाए। वित्तीय तंत्र को दहलाने वाले ऐसे स्कैंडलों के अलावा हमारे बैंकिंग तंत्र को भारीभरकम एनपीए (फंसे कर्जो) की समस्या से भी निपटना होगा, जिनकी वजह से सार्वजनिक व निजी, दोनों क्षेत्र के बैंकों की बैलेंस शीट्स गड़बड़ा रही हैं।

आरबीआई का आंकलन

भारतीय रिजर्व बैंक का आकलन है कि वर्ष 2006 से 2011 तक तीव्र क्रेडिट वृद्धि का काल रहा और 2011 के बाद यह धीरे-धीरे बढ़ा। लेकिन वर्ष 2015 में केंद्रीय बैंक द्वारा एनपीए निर्धारित करने संबंधी मानकों को सख्त करने के बाद इस आंकड़े में नाटकीय उछाल आया। इसके नतीजतन बैंकों द्वारा जिसे पहले स्टैंडर्ड एसेट के तौर पर वर्णित किया जाता था, उसका खुलासा एनपीए के तौर पर करना पड़ा। पिछले साल दिसंबर तक के जारी आंकड़े ने दर्शाया कि एनपीए 8.4 लाख करोड़ रुपये के स्तर तक पहुंच चुका है। भले ही यह आंकड़ा भयावह हो, लेकिन अच्छी खबर यह है कि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आइबीसी) के अमल में आने के बाद एनपीए के मसले से निपटने की पुख्ता कार्रवाइयां हो रही हैं। इस मामले में पहली बड़ी सफलता भूषण स्टील को बेचने के रूप में मिली, जिसे करीब 36000 करोड़ रुपये के लिए टाटा स्टील को बेच दिया गया।

मंत्रालय के भरोसे पर यकीन 

इस पहले कदम के साथ हम वित्त मंत्रलय के इस भरोसे पर यकीन कर सकते हैं कि इस साल एक लाख करोड़ रुपये तक की वसूली हो जाएगी। यह तो सिर्फ इस प्रक्रिया की शुरुआत है, जो निश्चित तौर पर उस सेक्टर के लिए शुभ संकेत है, जिसे लंबे समय से इस घुप अंधेरी सुरंग से निकलने की राह नहीं मिल रही थी। यह सही है कि बैंकिंग सेक्टर संकटों से घिरा है, लेकिन इस उथल-पुथल से व्यवस्था में जरूरी सुधारों की राह भी खुली है। रिजर्व बैंक ने पहले ही नियामक प्रक्रियाओं को सख्त करना शुरू कर दिया है, लेकिन उसका यह कहना भी सही है कि वह बैंकों के हरेक कृत्य पर तो निगाह नहीं रख सकता। इस संदर्भ में बैंक बोर्डो की भूमिका बढ़ाई जाए ताकि उनकी अधिक जवाबदेही सुनिश्चित हो और कॉरपोरेट गवर्नेस भी सुधरे। इसके साथ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के संदर्भ में सरकार की भूमिका भी फिर से परिभाषित की जाए, क्योंकि ये बैंक राजनीतिक दबाव से अछूते नहीं।

(लेखक वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं) 

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