दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के बारे में जानें वो सब कुछ जिनसे आप है नावाकिफ

आयुर्वेद दुनिया की सबसे पुरानी थैरेपी है। इसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। इसके बावजूद आयुर्वेद के करीब दो हजार वर्ष बाद प्रचलन में आई एलोपैथी प्रयोग और अनुसंधान के दम पर इससे काफी आगे निकल गई है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 30 Nov 2020 10:50 AM (IST) Updated:Mon, 30 Nov 2020 10:50 AM (IST)
दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के बारे में जानें वो सब कुछ जिनसे आप है नावाकिफ
विश्‍व की प्राचीनतक मेडिकल थैरेपी है आयुर्वेद

नई दिल्‍ली (जेएनएन)। आयुर्वेद दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति में से एक है। हालांकि, इस चिकित्सा पद्धति को अब तक व्यापक विस्तार नहीं मिल पाया है। दूसरी तरफ, आयुर्वेद के करीब दो हजार वर्ष बाद प्रचलन में आई एलोपैथी प्रयोग और अनुसंधान के दम पर काफी आगे निकल गई। हालांकि, विगत कुछ वर्षों में पारंपरिक और असरदार चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को आधार और विस्तार देने के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर पहल की है। परिणाम स्वरूप चिकित्सा पद्धति का प्रसार उस वर्ग में भी बढ़ने लगा है, जो अब तक इसे ‘जड़ी-बुटी’ भर समझता रहा।

आयुर्वेद क्या है

प्रकृति आधारित इस पुरातन चिकित्सा पद्धति में शारीरिक संरचनाओं, प्राकृतिक क्रियाओं और ब्रह्मांड के तत्वों के समन्वय के सिद्धांत पर इलाज का प्राविधान है।

इतिहास

माना जाता है कि आयुर्वेद का जन्म ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ। इसकी आधारशिर्ला हिंदू दार्शनिक विद्यालय वैशेषिक और तर्क विद्यालय न्याय में रखी गई। यह अभिव्यक्ति की रूपरेखा से भी जुड़ी है, जिसे समाख्या के नाम से जाना जाता है। समाख्या की स्थापना भी उसी समय हुई थी जब वैशेषिक और न्याय विद्यालयों का बोलबाला था। वैशेषिक विद्यालयों में रोगों की स्थिति की पढ़ाई होती थी, जबकि न्याय विद्यालयों में इलाज शुरू करने से पहले मरीज और रोग की स्थिति के बारे में पढ़ाया जाता था। वैशेषिक विद्यालय किसी तत्व को छह प्रकार में विभक्त करते हैं-द्रव्य, विशेष, कर्म, सामान्य, समाव्यय और गुण। बाद में वैशेषिक और न्याय विद्यालयों का विलय हो गया और उन्हें न्याय-वैशेषिक विद्यालय के नाम से जाना जाने लगा। न्याय-वैशेषिक विद्यालयों ने ही प्राचीन ज्ञान को विस्तार दिया और आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई। इन स्कूलों की स्थापना से पहले और आज भी आयुर्वेद का जनक पृथ्वी की रचना करने वाले भगवान ब्रह्मा को माना जाता है।

वेदों में वर्णन 

हिंदू धर्म के प्राचीन ग्रंथ यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद व अथर्ववेद में भी चिकित्सा प्रणाली का उल्लेख है। ऋग्वेद में 67 पौधों, जबकि अथर्ववेद और यजुर्वेद में क्रमश: 293 व 81 औषधीय पौधों का जिक्र है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति इन वेदों से प्राप्त ज्ञान पर आधारित है। अथर्ववेद और ऋग्वेद की रचना आत्रेय ऋषि ने की। ऐसा माना जाता है कि उन्हें इसका ज्ञान भगवान इंद्र ने दिया था। इंद्र ने खुद ब्रह्मा से यह विद्या सीखी थी। अग्निवेश ऋषि ने वेदों के ज्ञान को संग्रहित किया, जिसका संपादन चरक और कुछ अन्य ऋषियों ने किया। इस रचना को चरक संहिता के नाम से जाना जाता है। चरक संहिता में जहां रोगों और उसके उपचार का वर्णन है, वहीं सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का उल्लेख है।

आयुर्वेद का आधार

आयुर्वेद का मानना है कि पूरा ब्रह्मांड पांच तत्वों से मिलकर बना है। इनमें वायु, जल, आकाश, पृथ्वी व अग्नि शामिल हैं।  आयुर्वेद में इन्हें पंच महाभूत कहा गया है। मनुष्य के शरीर में तीन विकार पैदा होते हैं- पित्त दोष, वात दोष व कफ दोष। इन्हें त्रिदोष कहा जाता है, जो पांच उपदोषों के साथ मिलकर शारीरिक क्रिया को नियंत्रित करते हैं। आयुर्वेद का मानना है कि मनुष्य के शरीर में सप्तधातु (सात ऊतक) हैं- रस, मेद, रक्त, मज्जा, अस्थि, मम्स व शुक्र। इनके अलग-अलग काम हैं और रोगों के निदान में भी इनकी महती भूमिका होती है।

चिकित्सा के सूत्र

वात दोष: इसके तहत कोशिकाओं का आवागमन, शरीर में इलेक्ट्रोलाइट संतुलन, बेकार पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन किया जाता है। सूखेपन से इसके असर में इजाफा होता है।

पित्त दोष: इसके तहत शरीर के तापक्रम का नियमन किया जाता है। आप्टिक तंत्रिकाओं के बीच समन्वय के साथ भूख और प्यास का प्रबंधन भी होता है। शरीर की गर्म दशाएं पित्त को बढ़ाती हैं।

कफ दोष: शरीर में पसीने और चिकनाई युक्त खाद्य पदार्थों (वसीय चीजों) से इसमें वृद्धि होती है। शरीर के जोड़ों को सही सही तरीके से काम करने के लिए यह लुब्रिकेशन का काम करता है। शरीर की अपचय क्रिया वात से नियंत्रित होती है, उपापचय पित्त से और कफ से उपचय प्रक्रिया का नियमन होता है। किसी स्वस्थ शरीर के लिए तीनों दोषों और अन्य कारकों के बीच संतुलन होना बहुत आवश्यक होता है।

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