Carrot Grass: गाजर घास से बायो प्लास्टिक बनाने में मिली सफलता

गाजर घास से बायो प्लास्टिक बनाने में सफलता मिली है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान इंदौर के संरक्षण में निजी कालेज के प्रोफेसर व सहयोगी ने यह उपलब्धि हासिल की है। यह न केवल पालिथीन का विकल्प बन सकता है बल्कि दो महीने में प्राकृतिक रूप से नष्ट भी हो जाता है।

By Sachin Kumar MishraEdited By: Publish:Sat, 22 Jan 2022 06:04 PM (IST) Updated:Sat, 22 Jan 2022 06:04 PM (IST)
Carrot Grass: गाजर घास से बायो प्लास्टिक बनाने में मिली सफलता
गाजर घास से बायो प्लास्टिक बनाने में मिली सफलता। फाइल फोटो

इंदौर, जेएनएन। फसल, मनुष्यों और पशुओं के लिए दशकों से चिंता का सबब रही गाजर घास से भविष्य में प्लास्टिक के कचरे की चिंता से मुक्ति मिल सकती है। गाजर घास से बायो प्लास्टिक बनाने में सफलता मिली है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) इंदौर के संरक्षण में निजी कालेज के प्रोफेसर व सहयोगी ने यह उपलब्धि हासिल की है। बायो यह न केवल पालिथीन का विकल्प बन सकता है बल्कि डेढ़ से दो महीने में प्राकृतिक रूप से नष्ट भी हो जाता है। तकनीक सिद्धांत से आगे बढ़कर अब उपयोग के लिए तैयार करने के स्तर पर है। भारत सरकार के विज्ञान और तकनीक विभाग (डीएसटी) ने प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए 20 लाख रपये से अधिक का अनुदान भी दिया है। शोधार्थी अब तकनीक को इतना परिष्कृत करने के प्रयास में हैं कि दो वर्ष में यह उपयोग के लिए बाजार में आ सके।

जानिए, इनकी सफलता की कहानी

महाराजा रणजीत सिंह कालेज आफ प्रोफेशनल साइंसेस के बायोसाइंस विभाग के प्रोफेसर डा.मुकेश कुमार पाटीदार ने गाजर घास (वानस्पतिक नाम पार्थोनियम हिस्टेरोफोरस) से जुलाई, 2020 में बायो-प्लास्टिक बनाने पर काम शुरू किया था। उनकी सफलता की कहानी अमेरिकी जर्नल इंवायर्नमेंटल केमिकल इंजीनियरिंग में प्रकाशित हो चुकी है। अब डा.पाटीदार ने अपने निर्देशन में शोध कर रहे शाश्वत निगम के साथ बायो-प्लास्टिक को साकार रूप देने पर काम शुरू कर दिया है। दोनों ने गाजर घास से बायो प्लास्टिक की पतली फिल्म भी तैयार कर ली। इसे टिकाऊपन, मजबूती और नष्ट होने के तकनीकी पैमानों पर आंका गया। आइआइटी के रसायन विभाग की प्रोफेसर अपूर्बा के. दास बायो प्लास्टिक फिल्म के रासायनिक परीक्षणों में जुटी हैं।

पारदर्शी और प्लास्टिक जैसा ही मजबूत

डा. पाटीदार के अनुसार गाजर घास के सेल्युलोज यानी रेशों से बायो प्लास्टिक बनाने में सफलता मिली है। इसमें 36 प्रतिशत ऐसा सेल्युलोज होता है। यह सामान्य प्लास्टिक जैसा ही मजबूत है। जो फिल्म तैयार हुई है वह पारदर्शी है। यह नमक और 10 प्रतिशत सल्फ्यूरिक एसिड के घोल में भी बरकरार रहता है। यानी यह खाद्य पदार्थो की पैकिंग में काम आ सकता है। लैब में यह 45 दिनों में 80 प्रतिशत तक नष्ट भी हो गया। रेशों को प्लास्टिक में बदलने के लिए ग्लाइकोल रसायन की मदद ली जाती है। इसका पर्यावरण पर दुष्प्रभाव नहीं है। यह मौजूदा बायो प्लास्टिक के स्वरूपों से न केवल मजबूत है बल्कि इसकी लागत भी आधी होगी। अभी इसे बनाने में स्टार्च और कुछ खाद्यान्न का उपयोग होता है, जबकि गाजर घास ऐसे ही उपलब्ध हो जाती है। इसे हटाना भी समस्या है।

जानें, कब भारत आई थी गाजर घास

गाजर घास अमेरिकी मूल की वनस्पति है। गाजर के पौधे जैसी होती है। माना जाता है कि वर्ष 1950-55 के बीच इसके बीज भारत में पहुंचे। खाद्य संकट से जूझते देश ने अमेरिका से गेहूं पीएल-480 आयात किया था। इसके साथ गाजर घास के बीज भी देश में आए और तेजी से फैले। इसे चटक चांदनी या कांग्रेस घास के नाम से भी पुकारा जाता है। गाजर घास ऐसा खरपतवार है जो मनुष्य में दमा, एलर्जी व त्वचा रोग, खुजली उत्पन्न करता है। इससे फसलों के उत्पादन में भी कमी आती है।

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