Orchha Tourism: प्राकृतिक सौंदर्य, आस्था और इतिहास का दर्शन कराती राजा राम की नगरी ओरछा

लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण राजा वीरसिंह देव द्वारा सन् 1622 ई. में करवाया गया और परिवर्धन राजा पृथ्वी सिंह द्वारा सन् 1743 ई. में करवाया गया। मंदिर एक वर्गाकार प्रांगण में आयताकार योजना में निर्मित है। इसके सभी कोनों पर बहुकोणीय तारांकित बुर्ज बने हुए हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 09 Sep 2022 07:06 PM (IST) Updated:Fri, 09 Sep 2022 07:06 PM (IST)
Orchha Tourism: प्राकृतिक सौंदर्य, आस्था और इतिहास का दर्शन कराती राजा राम की नगरी ओरछा
बुंदेलखंड की अयोध्या में बेतवा नदी की कलकल और जंगल सफारी बढ़ाते पर्यटन का रोमांच

मनीष असाटी, ओरछा: यदि आप इतिहास,अध्यात्म और प्राकृतिक सौंदर्य का संगम देखना चाहते हैं तो मप्र के ओरछा से अच्छी और कोई जगह नहीं हो सकती। उप्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर लगे हुए बुंदेलखंड की 'अयोध्या' कही जाने वाली ओरछा नगरी में यूं तो साल भर धार्मिक आयोजन होते ही रहते हैं लेकिन अक्टूबर से लेकर फरवरी तक देश के अलावा विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा होता है। इसका कारण है यहां बेतवा किनारे का सुहावना मौसम और राम विवाह पंचमी के विभिन्न आयोजनों की बिखरी छटा। ओरछा की स्थापना 16 वीं शताब्दी में बुंदेला राजपूत प्रमुख रुद्र प्रताप ने की थी।

बुंदेला राजाओं ने इसे बसाया तो था अपनी राजधानी के तौर पर लेकिन वर्तमान में इसे राजा राम की नगरी से जाना जाता है। यहां एक ओर राजशाही दौर में तैयार ऐतिहासिक इमारतें लोगों को अपनी ओर आकर्षित करतीं हैं, तो वहीं दूसरी ओर नैसर्गिक सौंदर्य लोगों के मन में बस जाता है। साथ ही माता जानकी के साथ साक्षात विराजे भगवान श्रीराम हर दिन अपना दरबार सजाकर भक्तों की सुनवाई करते हैं। यही वजह है कि ओरछा में विराजे श्रीराम को राजा राम के रूप में पूजा जाता है। चतुर्भुज मंदिर,राम मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, जहांगीर महल हरदाैल बैठका, ऐतिहासिक छतरियां, कल-कल करती हुई बेतवा नदी सहित यहां का वातावरण लोगों को अपनी ओर आकर्षिक करता है। बता दें कि ओरछा की चारदीवारी में कोई भी वीवीआईपी हो, उन्हें सलामी नहीं दी जाती है। यहां पर श्रीराम राजा सरकार की ही सल्तनत चलती है। राम राजा सरकार की चार पहर आरती होती और बाद में सशस्त्र सलामी दी जाती है। सलामी के लिए राज्य शासन द्वारा यहां पर 1-4 की सशस्त्र गार्ड तैनात की गई है। मंदिर परिसर में कमर बंद केवल सलामी देने वाले ही बांधते हैं, बाकी अन्य कमरबंद नहीं बांध सकते। करीब दो लाख रुपए इन जवानों की प्रतिमाह सैलरी राज्य शासन ही देती है।

ऐसे पहुंचें

ओरछा नगरी मप्र के निवाड़ी जिले का हिस्सा है। रेल मार्ग से पहुंचने के लिए सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन झांसी जंक्शन है, जिसकी दूरी ओरछा से करीब 25 किलोमीटर है। सड़क मार्ग से ओरछा झांसी से 25 किमी, ग्वालियर से 120 किमी, खजुराहो से 181 किमी दूर है। ग्वालियर एवं खजुराहो सबसे करीबी हवाई अड्डे हैं।

44 वर्ग किमी में फैला ओरछा अभयारण्य

बेतवा नदी से लगे 44.910 वर्ग किलोमीटर में फैले अभयारण्य में कई जंगली जानवर विचरण करते हैं। वर्तमान में ओरछा अभ्यारण्य में सांभर, नीलगाय, जंगली सुअर, चीतल-चिंकारा के साथ बड़ी संख्या में बंदर और अन्य जानवर हैं। ओरछा पहुंचने के बाद पर्यटक जंगल सफारी और बेतवा नदी में राफ्टिंग का लुत्फ उठाते हैं। वन विभाग ने पर्यटकों की सुविधा के लिए जंगल क्षेत्र में साइकिल ट्रेक और पैदल चलने के अलग-अलग ट्रेक तैयार किए हैं। बेतवा नदी के किनारे जंगलों में कुछ पिकनिक स्पाट भी स्थापित किए गए हैं। यहां पर विभिन्न प्रजातियों की चिड़ियां और विलुप्त गिद्ध देखे जाते हैं। जिन्हें पर्यटक अपने कैमरों में कैद कर यात्रा को यादगार बनाते हैं। यहां बेतवा नदी सात धाराओं में विभाजित होती है, जिसे सतधारा भी कहा जाता है।

चतुर्भुज मंदिर में नहीं बैठे श्रीरामराजा सरकार

चतुर्भुज मंदिर एतिहासिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस मंदिर का निर्माण महाराज मधुकर शाह द्वारा सन् 1574 ई. में प्रारंभ कराया गया था। महारानी कुंवरि गणेश इस मंदिर में भगवान राम की मूर्ति स्थापित करना चाहती थीं, लेकिन बुंदेलखंड के पश्चिमी भाग पर मुगलों के आक्रमण के समय हुए युद्ध में सन् 1578 ई. में राजकुमार होरल देव के मारे जाने के कारण मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो सका। एेसी परिस्थिति में महारानी ने भगवान राम की मूर्ति स्वयं के महल में स्थापित की। महाराजा वीर सिंहजू देव द्वारा द्वितीय चरण में इस मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया गया। यह मंदिर ऊंचे अधिष्ठान पर स्थित है। इसकी योजना में गर्भगृह, अंतराल, अद्धमंडप एवं मंडप है। गर्भगृह के ऊपर नागर शैली का शिखर है। चारों कोनों पर लघु कक्षों की संरचना है। मंडप के ऊपर का निर्माण कार्य ईंट और चूने से किया गया था। यह मंदिर बुंदेला स्थापत्य का महत्वपूर्ण उदाहरण है।

मूर्ति विहीन लक्ष्मीनारायण मंदिर विश्व प्रख्यात

लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण राजा वीरसिंह देव द्वारा सन् 1622 ई. में करवाया गया और परिवर्धन राजा पृथ्वी सिंह द्वारा सन् 1743 ई. में करवाया गया। मंदिर एक वर्गाकार प्रांगण में आयताकार योजना में निर्मित है। इसके सभी कोनों पर बहुकोणीय तारांकित बुर्ज बने हुए हैं, जिसमें से एक प्रवेश द्वार बनाया गया है। ईंटों से निर्मित स्मारक एक गढ़ी जैसा प्रतीत होता है और इसका शिखर इसे मंदिर का रूप प्रदान करता है। मंदिर एवं चारों ओर के गलियारों की भित्तियों एवं वितानों पर सुंदर चित्र बने हैं। इन चित्रों में रामायण, श्रीमद् भगवत गीता के कथानकों के दृश्य हैं। इन चित्रों की शैली 17वीं से 19वीं सदी में विकसित बुंदेली शैली है। इस मंदिर में मूर्ति नहीं है। मूर्ति विहीन यह विश्व प्रख्यात मंदिर है। इन प्रमुख स्मारकों के अतिरिक्त ओरछा के अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों में बेतवा नदी के पास बनी छतरियां अपनी स्थापत्य कला के लिए महत्वपूर्ण है। इनमें मधुकर शाह, भारती चंद, वीर सिंह, सुजान सिंह आदि शासकों की छतरियां प्रमुख हैं।

झांसी और दतिया भी जा सकते हैं

यदि ओरछा जाएं तो स्वतंत्रता संग्राम के गवाह रहे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के एतिहासिक किले को जरूर देखने जाएं। झांसी से महज 30 किमी की दूरी पर दतिया है। यहां प्रसिद्ध पीतांबरा माई का दरबार है जहां लोगों की अटूट श्रृद्धा है।

लाला हरदौल की समाधि

वैसे तो हर गांव और जिलों में लाला हरदौल का मंदिर है, लेकिन ओरछा मंदिर के बगल में ही लाल हरदौल की समाधि आज भी है। इतिहासकार डा. हरिविष्णु अवस्थी ने बताया कि ओरछा के तत्कालीन राजा वीरसिंह जू देव के पुत्र लाला हरदौल थे और राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र जुझार सिंह को ओरछा राज की राजगद्दी सौंप दी थी। साथ ही हरदौल को ओरछा का दीवान बना दिया था। राजगद्दी संभालने के बाद राजा जुझार सिंह अनेकों बार मुगलों ने लडाई करते रहे, जिसके चलते ओरछा की प्रजा का पूरा भार दीवान हरदौल पर ही था। सलाहकारों के कान भरने पर जुझारसिंह ने हरदौल व अपनी रानी के रिश्ते पर संदेह करते हुए रानी से चंपावती को आदेश दिया कि वह लाला हरदौल को अपने हाथों से जहर का प्य़ाला दें। रानी चंपावती अपने देवर लाला हरदौल को पुत्र समान मानती थीं। मान्यता है कि सारी बात पता चलने पर लाला हरदौल ने अपनी मां समान भाभी के हाथों से जहर का प्याला हंसते-हंसते पी लिया।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी करना पड़ा था इंतजार

ओरछा में 31 मार्च 1984 में सातार नदी के तट पर चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा का अनावरण कार्यक्रम कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. रामरतन चतुर्वेदी द्वारा किया गया था। यहां पर शामिल होने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंची थी। हेलीकाप्टर से उतरते ही इंदिरा गांधी मंदिर में दर्शन करने पहुंच गईं, लेकिन उस समय दोपहर के 12 बज चुके थे और भगवान का भोग लग रहा था। तब मंदिर के पुजारी ने पट गिरा दिए थे। इस दौरान अफसरों ने पट खुलवाने की बात कही, लेकिन तत्कालीन क्लर्क लक्ष्मण सिंह गौर ने विरोध किया। लक्ष्मण ने प्रधानमंत्री को मंदिर के नियमों की जानकारी दी। इसके बाद इंदिरा गांधी करीब 30 मिनट इंतजार करती रहीं। राजभोग की प्रक्रिया पूरी होते ही पर्दा खुला और उन्हें दर्शन मिल सके।

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