मकर सक्रांति: इसलिए इस दिन सूर्य पूजा का विशेष महत्व है

इससे प्रति वर्ष सूर्य का उत्तरायण हमारे जीवन में भी दीर्घजीवी उजाले का आलोकित पर्व बन जाएगा।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Tue, 10 Jan 2017 12:39 PM (IST) Updated:Tue, 10 Jan 2017 12:49 PM (IST)
मकर सक्रांति: इसलिए इस दिन सूर्य पूजा का विशेष महत्व है
मकर सक्रांति: इसलिए इस दिन सूर्य पूजा का विशेष महत्व है

महापर्वमकर संक्रांति के अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान करने और तिल-गुड़ खाने के साथ ही हम उत्तरायण सूर्य की भी स्तुति करते हैं। इससे न सिर्फ वर्ष भर हमारे जीवन में मिठास घुली रहती है, बल्कि हमें सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा मिलती रहती है..

भारत में कुछ उत्सव और त्योहार हैं, जो याद दिलाते रहते हैं कि सदियों से कैसे एक अनमोल संस्कृति गढ़ी जा रही है। किस तरह मकर सक्रांति के आभिजात्य में खिचड़ी का लोकमंगल घुल मिल गया है। वैसे तो मकर संक्रांति सभी का साझा त्योहार है, फिर भी सूर्य का मकर राशि में प्रवेश, देवताओं की रात्रि के दक्षिण अयन से देवताओं के दिन अर्थात उत्तर अयन में सूर्य का आना, अपने ही पुत्र शनि, जिसे ज्योतिष में सूर्य का मित्र नहीं माना जाता है, उसकी राशि में सूर्य का आगमन जैसी कई बातें हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में लिखा गया है। आम जन तो सिर्फ तिल-गुड़ के लड्डू का स्वाद जानते हैं। वे पवित्र नदियों के जल में आस्था की डुबकियों का अलौकिक आनंद लेते हैं। इस दिन खिचड़ी और तिल व गुड़ के दान के बाद उन्हें पूर्णता का एहसास प्राप्त हो जाता है। इसलिए उत्तर भारत में इसे खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। मकर सक्रांति भिन्न-भिन्न रूप में पूरे देश में मनाई जाती है।
सामान्यतया इस पर्व (14 जनवरी) से ठीक एक दिन पहले कश्मीर से लेकर पंजाब और हरियाणा के आनंद को पूरे देश में बांटती हुई लोहड़ी की खुशियां इस उत्सव का आगाज करती हैं। वहीं लोहड़ी वाले दिन से ही दक्षिण भारत के तीन दिनों तक चलने वाले पर्व पोंगल का भी आगमन लगभग पूरे दक्षिण भारत में हो जाता है, जो मकर संक्रांति के अगले दिन तक जारी रहता है। पूर्वोत्तर भारत का माघी बिहू असम में इस दिन को नए आयाम देता है। बंगाल के गंगासागर पर इस दिन लगने वाला मेला वहां का सबसे बड़ा उत्सव है, क्योंकि माना जाता है कि गंगा इसी दिन सागर से मिली थीं। गंगासागर के भव्य मेले के साथ देश की सभी नदियों में इस दिन स्नान का पुण्य पाने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। प्रयागराज पर संगम में स्नान का पुण्य तो इस दिन हर कोई पाना चाहता है। नदियों किनारे आए उत्सव के रंग देखकर शायद आकाश भी रोमांचित हो उठता है। इसलिए इस दिन वह भी रंग-बिरंगी पतंगों से खुद को सजा लेता है।
मकर सक्रांति पर्व के केंद्र में सूर्य का राशि परिवर्तन है। सूर्य एक राशि में एक माह तक रहते हैं और कुछ लोग पंचांग संक्रांति से ही महीने का आरंभ मानते हैं। बारह राशियों में सूर्य के आगमन के कारण एक वर्ष में बारह संक्रांति होती हैं। मकर संक्रांति का महत्व सर्वाधिक है, क्योंकि इसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं और रात की अपेक्षा दिन बड़ा होना शुरू होता है। सूर्य ऊर्जा और प्रकाश के पुंज हैं, इसलिए हम गायत्री मंत्र में कहते हैं : तत सवितु वरेण्यं। वरेण्य तो सविता अर्थात सूर्य ही है, क्योंकि भारतीय संस्कृति अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। सूर्य केवल प्रकाश या ऊर्जा पुंज नहीं हैं। सूर्य ब्रह्मांड की आत्मा भी हैं, इसलिए उनकी स्तुति में कहते हैं : हे सूर्य! आप इन स्त्रोतों के कारण तीव्रगामी अश्वों के साथ हमारे सामने उदित हो रहे हैं। हम निष्पाप हुए। यह बात मित्र, वरुण, अर्यमा और अग्नि से भी कह दीजिए। व्यक्ति पुण्य स्नान-दान कर आत्मा से साक्षात्कार के पश्चात जीवन के उत्तर पथ का वरण करे, यही मकर संक्रांति का संदेश है। यही इसकी सार्थकता है। इसीलिए कभी भीष्म पितामह ने शर-शय्या पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी, क्योंकि यह काल मोक्षदाता है और यह काल प्रकाश के विस्तार की ओर इंगित करता है। मकर संक्रांति पर किसी पवित्र नदी में स्नान के पश्चात अथवा घर में ही स्नान के पश्चात सूर्य को अ‌र्घ्य देने की परंपरा है। अ‌र्घ्य देने के लिए पात्र में जल के साथ रोली, अक्षत, गुड़ एवम लाल पुष्प संयुक्त कर पूर्वाभिमुख होकर जल अर्पण करते हैं। सूर्य आत्मा के कारक हैं, पर साथ ही सूर्य आरोग्य और आयु प्रदान करने के साथ यश बल और विजय भी प्रदान करते हैं।
इसलिए इस दिन सूर्य पूजा का विशेष महत्व है। बदलते दौर में बहुत कुछ बदला है। साधनों के प्रति आग्रह और सरलता के नाना चलन हमसे बहुत कुछ छीनते जा रहे हैं। मकर सक्रांति के आसपास ही गांवों में गुड़ बनना शुरू हो जाता है। मिठास की मादक गंध पूरे वातावरण को महकाती रहती है। मिठास तो गन्ने के रस में भी होती है, पर इस रस की उम्र बहुत कम होती है, इसलिए इसे पकाकर गुड़ बनाते हैं, ताकि मिठास को सहेजा जा सके। तिलों की स्निग्धता सर्दियों के रूखेपन को हरती है, इसलिए इसे रसवान पौष्टिक गुणों से संयुक्त कर लड्डू बनाए जाते हैं। शहरों में लड्डू बनाने का चलन बहुत कम हो चुका है, क्योंकि बने-बनाए लड्डू दुकानों पर मिल जाते हैं, लेकिन अब सरलता का आग्रह इतना अधिक है कि लोग गुड़-तिल की बनी गजक ले आते हैं, क्योंकि लड्डू खाने में मुख को किंचित श्रम करना पड़ता है। गजक में तिलों की Fिग्धता शेष नहीं रहती, पर इसकी चिंता अब कौन करे। विवेकी-अविवेकी परिवर्तन से पर्व भी कहां अछूते रह पाए हैं। महाराष्ट्र में भी यह पर्व बहुत उत्साह के साथ मनाते हैं और इस अवसर पर कहते हैं तिल गुड़ घ्या अणि गोड गोड बोला।
यह संदेश शायद हमसे कहता है कि तिल गुड़ खाकर जीवन में मिठास और स्निग्धता बनी रहे और कड़वेपन के दौर में भी हम मीठा-मीठा बोलें। इससे प्रति वर्ष सूर्य का उत्तरायण हमारे जीवन में भी दीर्घजीवी उजाले का आलोकित पर्व बन जाएगा।

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