देश में थियेटरों की संख्या बढ़ाने की जरुरत समझते हैं अभिनेता के के मेनन
पानी के भीतर देशभक्तों द्वारा लड़ी गई जंग की बानगी है फिल्म ‘द गाजी अटैक’। फिल्म में नेवी अफसर की भूमिका निभा रहे केके मेनन साझा कर रहे हैं फिल्म की खासियतों उसमें अपने किरदार और बतौर कलाकार अपनी ख्वाहिशों को..
देश की सुरक्षा-व्यवस्था को केंद्र में रखकर बनी कहानियों में केके मेनन अहम किरदार निभाते रहे हैं। ‘शौर्य’, ‘हैदर’ के बाद अब ‘द गाजी अटैक’ में वह ऐसे ही अहम किरदार में नजर आएंगे। ‘द गाजी अटैक’ में वह नेवी अफसर बने हैं, जो 1971 में पाक लड़ाकू पनडुब्बी ‘पीएनएस गाजी’ को नेस्तनाबूत करने वाली टीम का हिस्सा है। वह जंगी पनडुब्बी भारतीय ‘आईएनएस विक्रांत’ को डुबोने के इरादे से बंगाल की खाड़ी में दुश्मनों ने भेजी थी। पानी के नीचे हुई जंग भारतीय नौसैनिकों ने पाक मंसूबों पर पानी फेर दिया था। इसके बावजूद उनकी वीरता की यह गाथा इतिहास में दर्ज नहीं है। इसकी वजह केके मेनन जाहिर करते हैं। वह कहते हैं, ‘दरअसल यह मिशन सीजफायर के दौरान अंजाम दिया गया था, इसलिए इसे क्लासीफाइड रखा गया।
हम आधिकारिक तौर पर ऐसा करते तो यह विएना कन्वेंशन के नियमों के खिलाफ होता। बहरहाल ‘पीएनएस गाजी’ को डुबो कर सभी भारतीय नौसैनिक सुरक्षित वापस लौटे थे। यह हिंदुस्तान की पहली ऐसी वॉर फिल्म होगी, जो पानी के भीतर हुई जंग को पेश करेगी।’ असल जंगी पनडुब्बी बना दी केके मेनन के मुताबिक ‘द गाजी अटैक’ का स्केल बहुत हाई है। वह बताते हैं, ‘हमने 18 दिन पानी के भीतर शूटिंग की। फिल्म के लिए तकरीबन असल जंगी पनडुब्बी बनाई। उसके भीतर हाइड्रोलिक ब्रेक, लाइट सप्लाई आदि लगाए। जब पीएनएस गाजी के टारपीडो से हमला होता है, तो हमारी पनडुब्बी असल में अपने अक्ष पर घूमने लगती है। हमने उन नौसैनिकों से बहुत इनपुट लिए, जो असल में उस जंग के साक्षी थे। इस फिल्म में हम एक और बात दिखा रहे हैं कि जब दुश्मन सामने हो तो अपनी सुरक्षा की खातिर नेताओं की अनुमति के प्रोटोकॉल का इंतजार करना गलत है। इसके चलते हमारे ढेर सारे सैनिक पूर्व में मरते रहे हैं।
मौजूदा सरकार ने ऐसा करने की इजाजत दे दी है। हालांकि यह आजादी भी अनुशासन के दायरे में होनी चाहिए।’ सोलो हीरो के किरदार केके मानते हैं कि देश में थिएटरों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही फेस्टिवल मिजाज की फिल्मों के लिए जबर्दस्ती जगह बनाने की भी जरूरत है। वहां उसी तेवर की फिल्में लगें। दर्शकों में उन फिल्मों का टेस्ट भी डेवलप हो। तब जाकर बात बनेगी। रहा यह सवाल कि मैं दूसरी भाषाओं की फिल्में क्यों नहीं करता हूं? तो उसका जवाब है कि मैं मानता हूं कि भाषा से ही भाव बनते हैं। मुझे जब तक वह भाषा नहीं आएगी, तब तक मैं उस लैंग्वेज की फिल्म नहीं करूंगा।
जब मुझे वह भाषा ही नहीं आती हो तो मैं चेहरे पर क्या भाव लाऊंगा। मेरी अंग्रेजी बहुत अच्छी है, मगर हॉलीवुड में भी हम जैसों को छोटे-मोटे रोल ही थमा दिए जाते हैं फिलर के तौर पर। वहां हमारा इस्तेमाल हो जाता है। अपने यहां ऐसा काम सितारों से लैस फिल्मों में हो जाता है। अगर इरफान, नवाज भाई जैसे नाम वाकई अपरिहार्य हो गए हैं तो उन्हें या हम जैसों को लेकर सोलो हीरो वाली फिल्में क्यों नहीं बन रहीं? इस फिल्म को भी रिलीज तब सुनिश्चित हो सकी, जब करण जौहर बोर्ड पर आए।’
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