जनजातीय भाषाओं को बचाने के लिए आदिवासी युवाओं की कवायद

भाषा संस्कृति की रीढ़ होती है। भाषा का विलुप्त होना संस्कृति का विलुप्त होना होता है। झारखंड के कुछ युवाओं ने जनजातीय भाषा के संरक्षण के लिए कदम उठाया है। इसके लिए वो युवाओं को विषेष कक्षा दे रहे हैं। भाषा संरक्षण का प्रयास कर रहे हैं।

By JagranEdited By: Publish:Thu, 26 Apr 2018 08:14 AM (IST) Updated:Thu, 26 Apr 2018 08:14 AM (IST)
जनजातीय भाषाओं को बचाने के लिए आदिवासी युवाओं की कवायद
जनजातीय भाषाओं को बचाने के लिए आदिवासी युवाओं की कवायद

विवेक आर्यन, रांची :

भाषा संस्कृति की रीढ़ होती है। भाषा का विलुप्त होना संस्कृति का विलुप्त होना है। इतिहास के पन्नों में भी संस्कृति का अलंकार भाषा से ही होता है। ऐसे ही झारखंड के गर्भ में कई भाषाएं पलीं और विकसित हुई जो आज विलुप्त होने को हैं। मुंडारी, उरांव, हो, संताली, कुड़ुख, खड़िया और सादरी झारखंड की भाषाएं हैं। औपचारिक तौर पर तो राज्य सरकार ने कुछ जनजातीय भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दे दिया है मगर हकीकत में सिर्फ दर्जा देने से बात नहीं बनने वाली। व्यवहार में लाने की जरूरत है। व्यवहार के मोर्चे पर छोटे ही स्तर पर मगर सराहनीय प्रयास कर रहे हैं।

राज्य के विभिन्न जिलों से रांची में पढ़ने आए आदिवासी छात्र अपने साथ अपनी भाषाएं भी लाए हैं। ये वे भाषाएं हैं जो कहने को तो राज्य की पहचान है लेकिन माता-पिता से बच्चों तक इनका संचार नहीं हो रहा। सोल ऑफ ट्राइबल दिशोम नामक युवा छात्रों का समूह एक दूसरे को आदिवासी भाषाएं सिखाते हैं। लगती है साप्ताहिक कक्षा

सप्ताह में एक दिन कॉलेज की छुट्टी के बाद आदिवासी भाषाओं की क्लास चलती है। उन्हीं में से जो जिस भाषा का जानकार होता है, दूसरों को सिखाता है। भाषा का ज्ञान तीन स्तरों पर दिया जाता है। व्याकरण, वार्ता और लिखित में। वर्तमान में मुंडारी, उरांव, कुड़ख, संथाली, खड़िया और सादरी भाषा सिखाई जा रही है। छात्र समूह आज भी कुड़ुख भाषा के जानकार की तलाश कर रहा है। नृत्य और संगीत पर भी जोर सोल ऑफ ट्राइबल दिशोम के संस्थापक संजय मुंडा बताते हैं कि केवल भाषा ही नहीं, उनका ध्यान आदिवासी संस्कृति के विविध आयाम पर है। संताली, मुंडा, सादरी आदि नृत्यों का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। इतना ही नहीं समय-समय पर वे मंच पर कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि नृत्य संगीत के माध्यम से वे जल, जंगल और जमीन की संस्कृति का महत्व लोगों को बताएं। खुद बनाते हैं आदिवासी पोशाक -

ट्राइबल दिशोम के छात्रों द्वारा ही आदिवासी पोशाकों का भी निर्माण किया जाता है। आदिवासियों की पारंपरिक लाल पाड़ साड़ी, हरा पाड़ साड़ी के अलावा हाथों का कड़ा, पैर के जेवर और अन्य आदिवासी आभूषण का निर्माण भी वे खुद करते हैं। उनका मानना है कि दूसरों की बदौलत संस्कृति का बचाव नहीं हो सकता। हर क्षेत्र में स्वयं ही कार्य करना होगा। इनकी बनाई हुई साड़ियां अच्छे दामों में बेची भी जाती है। मुझे भी नहीं आती थी गांव में बोली जाने वाली भाषा ''मुझे पहले मेरे गांव में बोली जाने वाली भाषाएं नहीं आती थी। जब मैने देखा कि पंजाबी, बंगाली, मराठी, भोजपूरी आदि देश की तमाम भाषाओं में फिल्में बन रही हैं तब मुझे लगा कि आदिवासी भाषाओं में भी फिल्में बननी चाहिए। लेकिन यहां आदिवासियों को भी अपनी भाषाएं नहीं आती। कॉलेज आते ही मैने तय किया कि मुझे आता है वो मैं दूसरों को सिखाउंगा और दूसरों की भाषाएं खुद सीखूंगा। आज मैं 5 आदिवासी भाषाएं जानता हूं। और उनके संरक्षण के लिए कार्य कर रहा हूं। ''

: संजय मुंडा, संस्थापक, सोल ऑफ ट्राइबल दिशोम । प्रतिक्रिया :

1 मुझे शुरु से ही आदिवासी समाज के लिए कार्य करने का मन था। कॉलेज में आ कर पता चला कि सोल ऑफ ट्राइबल दिशोम का ग्रुप इस दिशा में कार्य कर रहा है। मुझे बहुत खुशी है कि मैं इस टीम की सदस्य हूं। : आशा बेसरा।

2 यह ग्रुप मुझे ना केवल अपने समाज की समस्याओं से अवगत कराता है बल्कि उनसे लड़ने की क्षमता भी देता है। भाषाओं के संरक्षण और आदिवासी संस्कृति को बढ़ावा देने का यह प्रयास बेहतरीन है।

: आकांक्षा कंडुलना

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