पशुधन की महत्ता बताता है बांदना पर्व, झारखंड के आदिवासी समाज के लिए है खास; पढ़ें यह खबर

Jharkhand News प्रकृति प्रेमी झारखंडी लोगों के सभी पर्व प्रकृति व कृषि से जुड़ाव रखते हैं। कृषि कार्य शुरू करने से धान काटने तक हर कदम पर अलग-अलग पर्व मनाने की परंपरा रही है। इन्हीं पर्वों में एक है बांदना पर्व।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Publish:Wed, 25 Nov 2020 02:00 PM (IST) Updated:Wed, 25 Nov 2020 02:24 PM (IST)
पशुधन की महत्ता बताता है बांदना पर्व, झारखंड के आदिवासी समाज के लिए है खास; पढ़ें यह खबर
खूंटी में पशु की पूजा करतीं महिलाएं। जागरण

खूंटी, [दिलीप कुमार]। इस समय झारखंड का हर कोना बांदना पर्व पर थिरक रहा है। गांव गुलजार हैं। पशुधन के साथ-साथ हर गांव में किसान कृषि यंत्रों की पूजा कर रहे हैं। इस लोक पर्व से गांव की सोंधी माटी महक उठी है। झारखंडी आदिवासी समाज का यह विशेष पर्व आदिकाल से चला आ रहा है। प्रकृति प्रेमी झारखंडी लोगों के सभी पर्व प्रकृति व कृषि से जुड़ाव रखते हैं। कृषि कार्य शुरू करने से धान काटने तक हर कदम पर अलग-अलग पर्व मनाने की परंपरा रही है।

इन्हीं पर्वों में एक है कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला बांदना पर्व। यहां इसे सोहराय के नाम से भी लोग पुकारते हैं। धान काटने के बाद खलिहान में सुरक्षित रखने के बाद मनाए जाने वाले इस पर्व के दौरान पशुधन से किसी भी तरह का कोई काम नहीं लिया जाता है, और ना ही कृषि यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। इस दौरान इनकी विशेष देखभाल, सत्कार और पूजन-बंदन किया जाता है।

यह झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम के आदिवासी बहुल इलाकों में भी मनाया जाता है। काली पूजा व दीपावली के साथ ही झारखंड में इस पर्व की धूम मच जाती है। इस अवसर पर झारखंडी समाज के लोग बैलों की पूजा करते हैं। बांदना पर ग्रामीण अपने घर-आंगन की साफ सफाई कर रंग-बिरंगी मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से रंगाई करते हैं।

पांच दिनों तक चलता है बांदना पर्व

नेगाचार के हिसाब से यह परब कार्तिक अमावस्या के एक दिन पहले से पांच दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन घाउआ, दूसरे दिन अमावस की शाम को गठ पूजा और रात में धिंगवानी/दिजुआनि/जाहलिबुला के माध्यम से जागरण, तीसरे दिन गहाइल (गरइआ) पूजा, चौथे दिन बुड़ही बांदना (बरद खूंटा) एवं पांचवें दिन गुड़ी बांदना के रूप में मनाया जाता है।

कार्तिक माह के अमावस्या से पांच, सात या नौ दिन पूर्व से ही अपने घर के पशु जैसे गाय, बैल, भैंस आदि के सींग में तेल लगाया जाता है और उन्हेंं सजाया जाता है। बांदना पर्व के पहले दिन यानी अमावस के पहले दिन कांचि दुआरि देने का विधान है, जिसे घाउआ कहते हैं। रात भर गहाइल घर यानी गोशाला में घी के दीये जलाए जाते हैं। घर-घर में घाउआ जला कर लोग सेहरेइ गीत गाते हैं।

दूसरे दिन यानी अमावस के दिन गांव के लोग लाया, देहरी या पाहन के साथ शाम को गोधुली बेला में गठान टांड़ यानी जहां गांव के गाय-बैलों को एकत्र कर रखा जाता है, वहां जाते हैं। देहरी दिन भर निर्जल उपवास रहकर गठ पूजा करते हैं। गठ पूजा के बाद जिसकी गाय या बैल पूजा किए गए अंडे को फोड़ता है, उसका विशेष सम्मान किया जाता है। रात को उसी के घर से धिंगवानी का शुभारंभ होता है। रात भर ढोल, धमसा, मांदल के थाप पर अहिरा गाते हुए घर-घर जाकर गाय-बैल को जगाया जाता है।

बांदना में गरइआ पूजा का है विशेष महत्व

गरइआ पूजा बांधना परब का अभिन्न हिस्सा है। इस दिन घर का एक पुरुष व एक महिला उपवास रहते हैं। घर-आंगन की साफ-सफाई के बाद महिलाएं चावल का गुड़ी कुटती हैं। फिर अलग से चूल्हा बनाकर उसे गाय के दूध से मिलाकर का पीठा छांकती हैं। किसान घर के खेती-बाड़ी में प्रयोग होने वाले औजारों की पूजा घर के बाहर तुलसी ढीपा में की जाती है।

इसके बाद गोहाल यानी गोशाला में गोरया पूजा की जाती है। इस दौरान मुर्गा की बलि दी जाती है। इसके बाद चावल के गुड़ी को घोल कर चौक पूरा जाता है। इसमें सबसे पहले चौक के शीर्ष भाग में गोबर रखा जाता है। उसके ऊपर एक सोहराय घास देकर सिंदूर का टीका दिया जाता है। इसके बाद एक बछिया से उसे लंघवाया जाता है।

पशुधन व कृषि यंत्रों को पहनाया जाता धान का मुकुट

बांदना पर्व के दौरान पशुधन के अलावा कृषि यंत्रों को धान का मोड़ यानी मुकुट पहनाया जाता है। धान की बाली से बने मोड़ पहनाने के पीछे का उद्देश्य होता है कि जिस अनाज को जिन गाय-बैल व कृषि यंत्रों की बदौलत उपजाया गया है, उसे सबसे पहले उसी के सिर पर चढ़ा कर उन्हें समर्पित किया जाता है। शाम में घर के सभी गाय, बैल व भैंस के सींग पर तेल लगाया जाता है। महिलाएं उसे चुमान बंदन करती हैं।

गोरू खूंटान है बांदना का आकर्षण

बांदना परब के दौरान बरदखूंटा के दिन घर आंगन की लीपापोती कर कुल्ही यानी गांव की सड़क से लेकर संपूर्ण आंगन में चौक पूरा जाता है यानी चावल के आटे की घोल से अल्पना बनाया जाता है। घर के सभी गाय, बैल, भैंस के लिए मोड़ बनाया जाता है। इस दिन भी पैर धोकर सभी गाय, बैल, भैंस आदि को तेल-सिंदूर देकर चुमान बंदन किया जाता है। फिर उसे खूंटा से बांधकर नचाया जाता है।

इसे ही गोरू खूंटान कहा जाता है। पारंपरिक बांदना व सोहराई गीतों के साथ लोग आकर्षक रूप से सजाए गए बैल व भैंसों को ढोल नगाड़ों की थाप पर नचाते हैं। इस दौरान सोहराय गीत गाकर ढोल नगाड़ा मांदर के साथ चमड़ा लेकर उसे आत्मरक्षा का गुण भी सिखाया जाता है, ताकि जंगल में हिंसक जानवरों से अपनी और अपने दल का रक्षा कर सके। इस दिन घर के मालिक और मालकिन उपवास पर रहते हैं।

गुड़ी बांदना के दिन होता है गर्भाशय का बंदन

बरद खूंटा यानी गोरू खूंटान के दूसरे दिन गुड़ी बांधना मनाया जाता है। इस दिन वैसे बछिया को जो लंबे समय से गर्भधारण नहीं कर पाती है, उसे खूंटे में बांधकर नचाया जाता है। विभिन्न प्रकार के गीत गाकर उसके गुड़ी यानी गर्भाशय का बंदन किया जाता है, ताकि जल्दी गर्भधारण कर सके।

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