ईट भट्ठों से निकल खिलखिलाया बचपन

दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है। झारखंड की राजधानी रांची में आशा नामक संस्था ने 'एस

By Edited By: Publish:Sat, 20 Dec 2014 01:52 AM (IST) Updated:Sat, 20 Dec 2014 01:52 AM (IST)
ईट भट्ठों से निकल खिलखिलाया बचपन

दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है। झारखंड की राजधानी रांची में आशा नामक संस्था ने 'एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस' प्रोग्राम के तहत ईट भट्ठों में काम करनेवाले बच्चों को सुशिक्षित बनाने का बीड़ा उठाया है। इनके प्रयास से आज इन बच्चों की दिनचर्या बदल गई है।

राजधानी रांची से तकरीबन बीस किलोमीटर दूर ¨रग रोड किनारे स्थित है नई भुसूर बस्ती। यहां शुक्रवार की सुबह नौ बजे 'ज्योतिष्का' के बच्चे नहा-धोकर तैयार थे, स्कूल जाने को। कोई कपड़ा पहन रहा था तो कोई अपने बाल संवार रहा था। रसोईघर में उनके नाश्ते के लिए छोला और अंडा तैयार था। आधे घंटे बाद बरामदे में दरियां बिछ जाती हैं। अनुशासित हो कतार में लगभग अस्सी बच्चे अपने लिए नाश्ता लेकर वहां बैठ जाते हैं। प्रार्थना के बाद नाश्ता होता है। बच्चे अपने-अपने बस्ते उठाकर कतार में ही अपने स्कूल के लिए रवाना हो जाते हैं। सातवीं कक्षा में पढ़ रहे पवन उरांव अपना वह मॉडल ले जाना नहीं भूलता, जिसे उसने कबाड़ के सामानों से बनाया है। मैच द कॉलम। सही उत्तर मिलाओ, बल्ब जलेगा।

जी हां! कभी बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के ईट भट्ठों में इनके दिन मुंशियों की गाली सुनते कटते थे। पढ़ने लिखने व खेलने की उम्र में ही बच्चियों केदिन या तो ईट भट्ठों पर ही अपने छोटे भाई-बहनों को पालने या अपने और मां-बाप के लिए खाना बनाने में बीत रहे थे। पढ़ाई-लिखाई नसीब नहीं। कुछ अपने गांव में छोड़ भी दिए गए तो दूसरों के भरोसे। आज ये बच्चे सामान्य जीवन जी रहे हैं। पारिवारिक जीवन की ही तरह। समय पर उठना, ब्रश करना, नाश्ता, स्कूल जाना, प्रार्थना, शाम में खेलना व रात में ट्यूशन इनकी दिनचर्या बन गई है। बच्चे काफी खुश हैं। बरसात के बाद इनके माता-पिता की मजबूरी पलायन है। मौसमी पलायन। ईट भट्ठों पर काम करने के लिए। इनके बच्चे सफर न करें। सो, इनके आवासन से लेकर पढ़ाई-लिखाई तक का बीड़ा 'ज्योतिष्का' ने उठाया है। बरसात शुरू होने के बाद इनके मां-पिता आएंगे तो साथ ले जाएंगे। इस शर्त के साथ कि वहां भी न केवल इनका नामांकन किसी न किसी सरकारी स्कूल में कराएंगे बल्कि बरसात खत्म होने के बाद ईट भट्ठों पर जाने से पहले उन्हें यहां छोड़ जाएंगे। रवींद्रनाथ टैगोर की कविता 'ज्योतिष्का' से प्रेरित यह प्रोजेक्ट मौसमी पलायन करनेवाले मजदूरों के बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के उद्देश्य से 'एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस' अर्थात आशा नामक संस्था का है जो महिला उत्पीड़न की प्रबल विरोधी रहीं तथा 'वी कैन' जैसे अवार्ड से सम्मानित पूनम टोप्पो चला रही हैं। मुन्नी कच्छप, सुभाषी लकड़ा, शुभा तिर्की, संध्या रानी बोहरा इस मौसमी हॉस्टल में ही रहकर बच्चों की देखभाल करने व उन्हें शाम में पढ़ाने की जिम्मेदारी संभालती हैं। इनमें वह बेनामी भी शामिल है, जिसका आजतक नामकरण संस्कार ही नहीं हो सका। हालांकि संस्था ने इसे अंजलि नाम दिया है। कभी ये लड़कियां कोलकाता के बोलिया घाट के आसपास बने ईट भट्ठों में जाकर ऐसे बच्चों को पढ़ाने का काम करती थीं। बच्चों को ईट भट्ठों पर नहीं ले जाने के लिए अभिभावकों को जागरूक किया। संस्था के इस ईमानदार प्रयास की सुगंध फ्रांस तक पहुंची जिसके बाद वहां से एक दर्जन युवाओं के दल ने यहां आकर आर्थिक मदद के साथ-साथ श्रमदान भी किया। यहां 22 दिसंबर को मनाए जानेवाले उस समारोह की तैयारी चल रही है, जिसमें यहां रह रहे सभी 84 बच्चों का एक साथ जन्मदिन मनाया जाएगा।अधिकांश बच्चों का सही जन्मदिन पता ही नहीं, सो संस्था के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं।

संस्था के सचिव अजय जायसवाल कहते हैं, राज्य में बच्चों के ड्राप आउट होने का सबसे बड़ा कारण उनके अभिभावकों का काम की तलाश में पलायन होना है। यदि सरकार ईमानदारी से ऐसे बच्चों को आवासन व शिक्षा की व्यवस्था करे तो इस समस्या का समाधान संभव है। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक वर्ष तीस लाख परिवार काम के लिए मौसमी पलायन करते हैं। ऐसे में इन परिवारों के बच्चे बुनियादी शिक्षा से दूर हो जाते हैं। संस्था द्वारा आठ जिलों गुमला, रांची, खूंटी, लोहरदगा, लातेहार, सिमडेगा, पश्चिमी सिंहभूम तथा सरायकेला-खरसावां की 67 पंचायतों में कराए गए सर्वे का हवाला दिया जाता है, जिसमें लगभग 31 हजार परिवार के पलायित होने की बात सामने आई। इनमें 21 हजार परिवार ईट-भट्ठों पर काम करने के लिए बाहर गए। उनके अनुसार, गुमला में ही कई ऐसे गांव हैं, जो पूरे के पूरे खाली हो जाते हैं। वरीय शिक्षक सह अखिल झारखंड प्राथमिक शिक्षक संघ के महासचिव राममूर्ति ठाकुर भी स्वीकार करते हैं, बच्चों के ड्राप आउट रोकने के लिए सरकार को भी इस तरह के कदम उठाने चाहिए।

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