किसान की सभी समस्याओं का परंपरागत 'हल', ये हैं फायदे

झारखंड के दुर्गम इलाकों में परंपरागत हल का इस्तेमाल किसान अब भी बड़े पैमाने पर करते हैं। यह हल किसानी से जुड़ी तमाम समस्याओं का हल है।

By Sachin MishraEdited By: Publish:Fri, 29 Jun 2018 11:17 AM (IST) Updated:Fri, 29 Jun 2018 05:16 PM (IST)
किसान की सभी समस्याओं का परंपरागत 'हल', ये हैं फायदे
किसान की सभी समस्याओं का परंपरागत 'हल', ये हैं फायदे

लोहरदगा, गफ्फार अंसारी। झारखंड के दुर्गम इलाकों में परंपरागत हल का इस्तेमाल किसान अब भी बड़े पैमाने पर करते हैं। मौजूदा दौर में परंपरा का यह हल किसानी से जुड़ी तमाम समस्याओं का हल है। लोहरदगा जिले के सेन्हा प्रखंड स्थित रानीगंज बाजार में हल की दुकानें 125 साल से सजती आई हैं। पुरानी परंपरा किसानों को ताकत दे रही है।

इस बाजार में हल बेचने वालों और हल कारीगरों की दर्जनों दुकानें लगती हैं। इनके लिए हल की बिक्री ही जीविकोपार्जन का मुख्य जरिया है। यहां के हल की मांग कई जिलों में है। लोहरदगा, गुमला, रांची, लातेहार सहित कई जिलों से किसान हल की खरीदारी के लिए यहां आते हैं। यहां साल भर हल की बिक्री होती है। हालांकि मई और जून माह में हल की सबसे अधिक बिक्री होती है। जिससे इस काम से जुड़े एक-एक व्यक्ति को महीने में 10 हजार रुपये तक की आमदनी हो जाती है।

दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों और प्रतिकूल भौगोलिक स्थिति वाले इलाकों के किसान तो पूरी तरह हल पर ही निर्भर हैं। इन किसानों को तकनीक से कहीं ज्यादा परंपरागत साधनों पर यकीन है। हल को अपनाए रहने के कारण इन किसानों के पास पशु धन की कमी नहीं है। पशु धन उपलब्ध होने के कारण जैविक खाद भी पर्याप्त मात्रा में हासिल हो जाता है। हल के चलते वे ट्रैक्टर, डीजल और खाद आदि के खर्च से बच जाते हैं। हां, श्रम और समय अवश्य लगता है, लेकिन यह इनके लिए फायदे का सौदा साबित होता है। बैलों का उपयोग खेतों की जोताई करने से लेकर मड़ाई तक अनेक कार्यों में होता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां मवेशी फसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचा पाते हैं। कारण है कि किसान जब हल-बैल का उपयोग करते हैं या घर में पशुधन रखते हैं तो उनके हरे चारे का इंतजाम भी खुद ही करते हैं।

परंपरा ऐसी पक्की है कि साधन संपन्न किसान भी हल को तवज्जो देते हैं। झारखंड के साधन संपन्न पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, बाबूलाल मरांडी, विधायक जगरनाथ महतो के खेतों में भी हल से ही जोताई की जाती है। खेतों में हल से जोताई करते हुए खुद इनकी भी तस्वीर कई अवसरों पर सामने आई।

हल बनाने वालों को भी अच्छी आमदनी हो जाती है। विशेष कर आदिवासी और आदिम जनजाति के लोग इससे ज्यादा जुड़े हुए हैं। बंधनी खेरवार बताती हैं कि एक हल को बनाने में तीन घंटे का समय लगता है जबकि कीमत 300 रुपये मिलती है। जंगल में सूखे पेड़ बड़े आराम से मिल जाते हैं। वन विभाग को सूखे और गिरे हुए पेड़ों को उपयोग के लिए देने में कोई ऐतराज भी नहीं है। लिहाजा हम कभी भी हरे पेड़ों को नहीं काटते हैं। घर के सभी सदस्य मिलकर सप्ताह में सात-आठ हल तैयार कर लेते हैं।

ये हैं फायदे

स्थानीय किसान जगदीश उरांव बताते हैं कि हल-बैल से खेती करने का एक फायदा यह भी है कि छोटे-छोटे से कोने में भी हल से जोताई की जा सकती है। एक एकड़ खेत की जोताई में ट्रैक्टर से आने वाला खर्च लगभग 2000 रुपये है। वहीं हल-बैल से किसान की मजदूरी और बैलों का चारा भी जोड़ लिया जाए तो वह खर्च लगभग 1000 रुपये ही आता है। किसान एक एकड़ क्षेत्र में रासायनिक खाद में यूरिया, डीजीपी, पोटास सहित लगभग 2500 रुपये खर्च करता है। हल-बैल से खेतों में होने वाली जुताई से मिट्टी लंबे समय तक भुरभुरी बनी रहती है। ट्रैक्टर से जुताई करने पर मिट्टी में कड़ापन आने लगता है।

फायदे का सौदा

कृषि विज्ञान केंद्र, लोहरदगा के मुख्य कृषि वैज्ञानिक डॉ शंकर सिंह का कहना है कि हल-बैल से खेती में बस फायदा ही फायदा है। लागत में कमी के अलावा पशुधन होने से खाद, दूध तो मिलता ही है, मिट्टी के लिए भी हल-बैल फायदेमंद हैं।

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