आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता 'सरहुल'

सरहुल त्योहार धरती माता को समर्पित है। साल के वृक्ष में फूलों का आना इस त्योहार के आने का द्योतक है।

By JagranEdited By: Publish:Fri, 16 Mar 2018 06:58 PM (IST) Updated:Fri, 16 Mar 2018 06:58 PM (IST)
आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता 'सरहुल'
आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता 'सरहुल'

दिलीप कुमार, जमशेदपुर

सरहुल प्रकृति से जुड़ा आदिवासियों का सबसे प्रमुख पर्व है, जिसे समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। सरहुल केवल एक पर्व नहीं बल्कि झारखंड के गौरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है। यही धरोहर मानव-सभ्यता, संस्कृति व पर्यावरण की रीढ़ भी है। सरहुल झारखंड के साथ ओडिशा, पश्चिम बंगाल और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से शुरू होकर दो माह तक चलने वाला यह एक धार्मिक त्योहार है। यह पर्व नए साल की शुरुआत का प्रतीक है। आमतौर पर आदिवासी इस त्योहार को मनाने के बाद ही नई फसल का उपयोग, मुख्य रूप से धान, पेड़ के पत्ते, फूल और फल का उपयोग करते हैं। बसंत ऋतु के दौरान मनाए जाने वाले सरहुल में पेड़ और प्रकृति के अन्य तत्वों की पूजा होती है। सरहुल का शाब्दिक अर्थ है साल की पूजा। सरहुल त्योहार धरती माता को समर्पित है। साल के वृक्ष में फूलों का आना इस त्योहार के आने का द्योतक है। प्रकृति पूजक आदिवासी सरहुल गीतों की ताल पर प्रसिद्ध सरहुल नृत्य पर झूमते हुए प्रकृति से अपने जुड़ाव और आत्मीयता का परिचय देते हैं। पर्व का उद्देश्य होता है सृष्टि से संबंध और उसमें आदिवासियों की भूमिका को प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति द्वारा कायम रखना। सरहुल को लेकर समाज में अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं।

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पूजा का है विशेष महत्व

सरना पूजा के दौरान पाहन यानि पुजारी तीन अलग-अलग रंग के मुर्गे की बलि देते हैं। पहला सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए, दूसरा गाव के देवताओं के लिए और तीसरा गाव के पूर्वजों के लिए। पूजा के दौरान ग्रामीण, सरना के जगह को घेर लेते हैं। जब पाहन देवी-देवताओं की पूजा के मंत्र जप रहे होते हैं, तब ढोल, नगाड़ा और अन्य पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं। इसके पूर्व सरना स्थल में तीन नए घड़े में शुद्ध पानी रखा जाता है। शाम को घर वापसी के समय तीनों घड़ों में पानी का स्तर देखा जाता है। अगर घड़ों का जलस्तर कम होता है तो माना जाता है कि उस वर्ष बारिश कम होगी। अगर घड़ा भरा रहता है या पानी गिरने लगता है तो माना जाता है कि बारिश अच्छी होगी। किसी घड़ा में अधिक और किसी में कम पानी होता है तो इससे बारिश की दिशा का अंदाजा लगाया जाता है। परंपरा के तहत सरहुल के दिन सुबह मछली और केकड़ा मारा जाता है। मान्यता के अनुसार केकड़ा और मछली ने ही पृथ्वी की उत्पत्ति की थी।

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सरहुल नृत्य से झूमता है समाज

पूजा समाप्त होने पर, गाव के लड़के पाहन को अपने कंधे पर बैठाते हैं और गाव की लड़कियां रास्ते भर आगे-पीछे नाचती-गाती पाहन को उनके घर तक ले जाते हैं। जहां पाहन की पत्‍‌नी पैर धोकर स्वागत करती हैं। तब पाहन अपनी पत्‍‌नी और ग्रामीणों को साल का फूल भेंट करते हैं। सरहुल के अवसर पर समाज का हर वर्ग नृत्य गीत में लीन रहता है।

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कम नहीं हुआ उत्साह

सरहुल झारखंड में रहने वाली जनजातियों का प्रमुख त्योहार है। इसमें युवाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण मानी जाती है। आधुनिकीकरण के शुरुआती दिनों में इस पर्व के प्रति रुझान कम हुआ था, लेकिन युवा वर्ग फिर उसी हर्षोल्लास के साथ मना रहा है। जनजातियों की कई चीजें लुप्त होने के कगार पर हैं, पर सरहुल का उत्साह कम नहीं हुआ।

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2013 से निकल रही सामूहिक शोभायात्रा

जमशेदपुर में सरहुल की शोभायात्रा 20 मार्च को निकलेगी। इस वर्ष शोभायात्रा में छऊ नृत्य आकर्षण का मुख्य केंद्र होगा। इसके साथ पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती झाकी भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचेगी। शहर में वर्ष 2013 से सभी आदिवासी समाज एकसाथ मिलकर सरहुल शोभायात्रा निकालते हैं। शोभायात्रा में आदिवासी उरांव समाज के अलावा हो, मुंडा, तुरी, भुइयां समाज के सदस्य शामिल होंगे। इसके पूर्व जमशेदपुर में सिर्फ उरांव समाज की ओर से सरहुल पर शोभायात्रा निकाली जाती थी।

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