International Olympic Day : दोराब जी टाटा, जिन्होंने किसानों को एथलीट बना अपने खर्चे पर पहली बार ओलंपिक में भारतीय टीम को भेजा
भले ही आज ओलंपिक में भारत का एक अलग स्थान है। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब ओलंपिक में भारतीय टीम को भेजने के लिए पैसे तक नहीं थे। तब टाटा स्टील के दूसरे अध्यक्ष दोराबजी टाटा ने अपने पैसे को टीम में ओलंपिक में भेजा था।
जितेंद्र सिंह, जमशेदपुर : आजादी के बहुत पहले ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय मिट्टी पर ओलंपिक की कहानी पनप रही थी। इस कहानी को सींचने वाले थे टाटा समूह दूसरे अध्यक्ष सर दोराब जी टाटा। यह दोराबजी की कोशिशों का ही फल था कि 1920 में भारत के छह खिलाड़ियों ने एंटवर्प ओलंपिक में हिस्सा लेने पहुंची। सबसे बड़ी बात यह थी कि भारत ओलंपिक में हिस्सा लेने वाला पहला एशियाई औपनिवेशक देश था।
जमशेदजी टाटा के बड़े बेटे थे दोराबजी टाटा
1907 में जमशेदपुर में टाटा स्टील की स्थापना हो चुकी थी। सर दोरबाजी टाटा जमशेदजी टाटा के बड़े बेटे थे। दोराब जी टाटा सर रतन जी टाटा के 12 साल छोटे थे। ऐसे में जमशेदजी टाटा के निधन के बाद कंपनी संभालने का जिम्मा दोराबजी टाटा पर आ गई। उन्होंने टाटा स्टील (पूर्ववर्ती टिस्को) को आगे बढ़ाया। ब्रिटिश इंडिया में उनके औद्योगिक योगदान के लिए साल 1910 में दोराबजी टाटा को नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
जमशेदजी का सपना था कि भारत न सिर्फ उद्योग बल्कि खेल के क्षेत्र में भी आगे बढ़े। दोराबजी ने उनके सपनों को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
भारत में की एथलेटिक्स स्पोर्ट्स मीट की शुरुआत
मुंबई में जन्मे दोराबजी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद गॉनविल एंड कीज कॉलेज, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में दाखिला ले लिया। इंग्लैंड के कॉलेजों में खेलों को काफी प्राथमिकता दी जाती थी। भारत लौटकर मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज में 1882 तक पढ़ाई की। दोराबजी टाटा ने युवाओं को खेल से जोड़ने के लिए कई स्कूलों और कॉलेजों में एथलेटिक्स एसोसिएशन और एथलेटिक्स स्पोर्ट्स मीट के आयोजनों को बढ़ावा दिया।
14 साल के सचिन तेंदुलकर और सर दोराबजी टाटा के बीच संबंध
1988 में 14 साल की उम्र में क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर ने एक इंटर स्कूल टूर्नामेंट में विनोद कांबली के साथ 664 रन की पार्टनरशिप खेली थी। इस प्रदर्शन ने दुनिया भर में खूब सुर्खियां बटोरी। सचिन को यह बड़ी पहचान दिलाने वाले अंतर स्कूल टूर्नामेंट का नाम हैरिस शील्ड था। इस हैरिस शील्ड की शुरुआत सर दोराब जी टाटा ने साल 1886 में की थी।
1920 में दोराबजी ने अपने खर्चे पर भारतीय टीम को ओलंपिक में भेजा
दोराब जी टाटा को पुणे के डेक्कन जिमखाना का पहला अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने अध्यक्ष बनते ही जिमखाना का पहला एथलेटिक्स मीट 1919 में करवाया। इस मीट में जिन खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया वह किसान वर्ग से थे। दोराब जी को यह पता चला कि दौड़ रहे खिलाड़ियों को एथलेटिक्स का ककहरा तक नहीं पता था। वह सिर्फ दौड़ना जाते थे। लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि दौड़ रहे कुछ खिलाड़ियों की टाइमिंग ओलंपिक क्वालीफाई करने लायक था। दोराबजी ने उक्त प्रतियोगिता के फाइनल में चीफ गेस्ट के तौर परबॉम्बे (मुंबई) के गवर्नर डेविड लॉयड जॉर्ज को बुलाया और उनके सामने भारत को 1920 के एंटवर्प ओलंपिक में भेजने का प्रस्ताव रख धिया। उन्होंने भारत को ओलंपिक में भाग लेने के लिए ब्रिटिश ओलंपिक कमेटी से समर्थन की अपील की। गर्वनर की मदद से अंतराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने भारत को भाग लेने कि अनुमति दे दी। यहीं से भारतीय ओलंपिक कमेटी के बनने की नींव भी रखी गई।
किसानों को बनाया गया एथलीट, नियम तक की जानकारी नहीं थी
आईओसी (अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी) से अनुमति मिलने पर सेलेक्शन ट्रायल के लिए एक एथलेटिक्स मीट का आयोजन हुआ। इस प्रतियोगिता में विशेष तौर पर छह खिलाड़ियों का अच्छा प्रदर्शन देख दोराबजी ने 1920 के एंटवर्प ओलंपिक के लिए उनको चुन लिया। हालांकि जिन खिलाड़ियों का चयन हुआ था, उन्हें ओलंपिक में रेस के नियमों के बारे में जानकारी तक नहीं थी। एक बार जिम प्रमुख जिमखाना मेंबर से पूछा गया कि ओलंपिक में 100 मीटर रेस में क्वालिफ़ाई करने के लिए टाइम का क्या मापदंड है, तो उन्होंने कहा कि एक से दो मिनट होगा। लेकिन जब उस सदस्य को पता चला कि ओलंपिक में बात मिनटों की नहीं, सेकेंड और मिलीसेकेंड में होती है, तो वह अवाक रह गए।
पिता जमशेदजी टाटा व पत्नी महेरबाई के साथ दोराबजी टाटा।
ओलंपिक टीम भेजने के लिए लोगों से मांगी गई मदद
खिलाड़ियों का चयन तो हो गया, लेकिन आर्थिक चुनौतियां मुंह बाए सामने खड़ी थी। आर्थिक रूप से कमजोर सभी खिलाड़ी किसान वर्ग से आते थे। उस समय टीम को भेजने के लिए 35 हजार रुपयों की जरूरत थी। जिमखाना की ओर से अखबार में आम जनता से चंदा इकट्ठा करने के लिए विज्ञापन छपवाया गया। तत्कालीन सरकार ने सिर्फ छह हजार रुपये दिए थे। दुर्भाग्यवश जनता की अपील का कोई फायदा नहीं हुआ। तब जाकर सर दोराबजी टाटा ने अपने पैसे से से तीन खिलाड़ियों को भेजा। बाक़ी खिलाड़ियों को चंदे के पैसे से भेजा गया। हालांकि भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन अच्छा नहीं था और अखबारों में इस टीम की कहानी को उतना तवज्जों नहीं दिया गया।
1928 ओलंपिक में भारत व नीदरलैंड की टीम।
भारत के लिए गेम चेंजर साबित हुआ 1924 का पेरिस ओलंपिक
इस हताशाजनक प्रदर्शन के बावजूद दोराब जी टाटा ने हिम्मत नहीं हारी। धीरे-धीरे आम जनता के बीच ओलंपिक को लेकर जागरुकता बढ़ी। 1920 में दोराबजी टाटा, राजा और सरकार ने ओलंपिक टीम की मदद की थी। 1924 ओलंपिक में टीम को भेजने के लिए देश के कई राज्यों से लेकर सेना तक ने मदद की। इस बार राज्य स्तर पर हो रहे ओलंपिक चयन ट्रायल अखबारों की सुर्खियां बन रही थी. हालांकि 1920 ओलंपिक मे दोराबजी टाटा ने अपने अनुभव के आधार पर खिलाड़ियों का चयन किया था, लेकिन इस बार राज्य स्तर पर चयन के बाद दिल्ली ओलंपिक के जरिए टीम का चयन हो रहा था।
इसी सिस्टम के आधार पर ऑल इंडिया ओलंपिक एसोसिएशन का गठन किया गया। इस बार भारत के आठ खिलाड़ियों को साल 1924 के पेरिस ओलंपिक में हिस्सा लेने का मौका मिला। हालांकि 1924 में भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, लेकिन 1920 के बनिस्पत सुधार दिखा। ऑल इंडिया ओलंपिक एसोसिएशन तीन साल तक ही चल पाया। 1927 में पहली बार इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन (आईओए) की नींव पड़ी, जो आजतक भारत में ओलंपिक खेलों की ज़िम्मेदारी उठा रही है। उस समय सर दोराबजी टाटा को इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का पहला अध्यक्ष चुना गया।
1943 में भारतीय ओलंपिक संघ के सदस्य।
दोराबजी ने 1928 में भारतीय ओलंपिक संघ से दिया इस्तीफा
1928 ओलंपिक के पहले सर दोराबजी टाटा ने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उस समय कई राजाओं, बड़े कारोबारियों की नजरें इस कुर्सी पर लगी हुई थी। लेकिन इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष बनने के लिए न सिर्फ पैसों की आवश्यकता थी, बल्कि अध्यक्ष को आर्थिक रूप से इतना मजबूत होना पड़ता था कि वह इंग्लैंड जा सके और भारत का प्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी में करता रहे। दोराबजी के बाद आईओसी (अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी) ने कपूरथला के राजा जगजीत सिंह को अपनी पसंद बताई। दोराबजी को इसपर आपत्ति नहीं थी। लेकिन इन सबके बीच दिग्गज क्रिकेटर और नवानगर के जाम साहिब रणजी और बर्दवान के राजा के भी नाम अध्यक्ष पद के लिए उछलकर सामने आया। लेकिन जैसे ही मैदान में पटियाला के महाराज भूपेंदर सिंह उतरे, सभी पीछे हट गए। यहां तक कि रणजी भी पीछे हट गए, क्योंकि पटियाला के महाराज भूपेंदर सिंह रणजी की मुसीबत में समय आर्थिक तौर पर कई बार मदद कर चुके थे। इसी कारण से दोनों के रिश्ते काफी मजबूत थे। 1924 में ओलंपिक में गए पंजाप के खिलाड़ी दलीप सिह को भूपेंदर सिंह ने ही सहायता की थी। एक बार दलीप सिंह जब उनके ख़िलाफ़ चल रही राजनीति के चलते ट्रायल में हिस्सा नहीं ले पा रहे थे, तो उन्होंने पटियाला के महाराज से मदद की अपील की थी। इसके बाद भूपेंदर सिंह ने दलीप सिंह को टीम में जगह दिलाई बल्कि पटियाला स्टेट ओलंपिक एसोसिएशन भी बनाया। साल 1927 में भूपेंदर सिंह को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष चुना गया। इसके तुरंत बाद ही सर दोराबजी टाटा को लाइफ़ प्रेसिडेंट पद से सम्मानित किया।
1928 में नीदरलैंड के खिलाफ शॉट लगाते मेजर ध्यानचंद।
ओलंपिक में हॉकी टीम में लगातार छह बार जीता स्वर्ण
1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारत को पहली बार स्वर्ण पदक हासिल हुआ। यह ध्यानचंद की अगुवाई वाली हॉकी टीम के कारण संभव हो गया। इसके बाद लगातार छह बार भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता। अब 2021 ओलंपिक आ गया है और टोक्यो ओलंपिक में अब तक 77 खिलाड़ी क्वालिफ़ाई कर चुके हैं।
दोराबजी को टेनिस खेलना पसंद था
27 अगस्त 1859 को जन्मे सर दोराबजी टाटा, जमशेद जी नसेरवान जी टाटा के सबसे बड़े बेटे थे। जिन्होंने वर्ष 1907 में भारत का पहला एकीकृत स्टील प्लांट की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1910 में टाटा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर सप्लाई कंपनी और वर्ष 1911 में रिसर्च इंडस्टीट्यूट इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना कर अपने पिता के सपनों को साकार किया। एक कुशल उद्यमी होने के अलावा सर दोराबजी टाटा एक अच्छे खिलाड़ी भी थे जिन्हें टेनिस खेलना पसंद था। साथ ही वे एक अच्छे घुड़सवार भी थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उन्होंने क्रिकेट व फुटबॉल भी खेला करते थे।
'फ्लाइंग सिख' मिल्खा सिंह से जुड़ी प्रत्येक खबर पढ़ने के लिए क्लिक करें