कमरे में खाना नहीं, बाहर निकलना नहीं

महानगरों से वापस अपने घर लौटे कई मजदूर ऐसे हैं जिन्हें सरकारी मदद के रूप में कुछ नहीं मिला है। यहां तक कि घर लौटने के लिए भी कर्ज लेकर घर वालों ने पैसा भेजा। तब अपने घर लौट सके। रूम में एक छटाक अनाज नहीं था और वे न तो कहीं बाहर जा सकते थे। अगल-बगल के लोगों को भी बिल्डिग के अंदर आने की इजाजत थी।

By JagranEdited By: Publish:Tue, 02 Jun 2020 10:00 PM (IST) Updated:Wed, 03 Jun 2020 06:19 AM (IST)
कमरे में खाना नहीं, बाहर निकलना नहीं
कमरे में खाना नहीं, बाहर निकलना नहीं

संदीप बरनवाल, गावां (गिरिडीह) : महानगरों से वापस अपने घर लौटे कई मजदूर ऐसे हैं जिन्हें सरकारी मदद के रूप में कुछ नहीं मिला है। यहां तक कि घर लौटने के लिए भी कर्ज लेकर घरवालों ने पैसा भेजा। तब अपने घर लौट सके। रूम में एक छटाक अनाज नहीं था और वे कहीं बाहर भी नहीं जा सकते थे। अगल-बगल के लोगों को भी बिल्डिग के अंदर आने की इजाजत नहीं थी। एक ही बिल्डिग में गिरिडीह जिले के अलग-अलग प्रखंडों के 50 मजदूर जिस भवन में रहते थे वो किसी जेल से कम नहीं था। लॉकडाउन के बाद जो परेशानी मजदूरों को वहां झेलनी पड़ी उसे सुनकर हर किसी की आंखें नम हो जाएंगी।

गावां निवासी विक्की राम गुजरात के सूरत में डेढ़ साल से रहकर कपड़ा दुकान में काम करता था। वह बताता है कि पहला लॉकडाउन जब 21 दिन के लिए हुआ था तो सोचा कि इसके बाद घर निकल जाउंगा। इसके लिए बस बुक करवा लिया था। 2500 रुपया करके सभी मजदूरों को लगा था, लेकिन लॉकडाउन बढ़ गया तो बाद में बस मालिक ने पैसा वापस कर दिया। पुन: जब 14 दिन के लिए यह बढ़ गया तो परेशानी बढ़ने लगी। रूम में अनाज नहीं रहने के कारण खाना पीना मुश्किल हो गया। हेल्पलाइन नंबर पर कई बार फोन लगा रहे थे पर नहीं लग रहा था। जितने भी नंबर हेल्पलाइन के दिए गए थे उस पर लगा लगाकर परेशान थे। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।

घर में मम्मी, पापा व पत्नी फोन कर अलग परेशान थीं। पता चला कि घर भेजने के लिए लोगों को टिकट के लिए फॉर्म भरवाया जा रहा है। फॉर्म भरा भी और बाद में ऑनलाइन में नाम भी आया पर टिकट नहीं मिला। सूचना मिली कि टिकट को 3 -3 हजार रुपये ब्लैक में बेच दिया गया। इससे वह हताश व निराश हो गया। लगता था कि कोरोना से तो पता नहीं, भूख से मौत जरूर हो जाएगी। कभी 5 से 6 हजार महीने का घर भेजता था। स्थिति ऐसी आ गई कि घर से पांच हजार रुपये कर्ज करके मंगवाया व किसी तरह से 14 मई को वहां से आने के लिए गिरिडीह जिले के अलग-अलग प्रखंडों के 56 लोगों ने 4500 रुपये करके किराया देकर ढाई लाख में बस बुक किया और घर के लिए रवाना हो गए। सरिया में बस खराब हो गई तो फिर घर से तीन हजार रुपये में बुक करके घर से गाड़ी मंगवाई और घर पहुंचे। घर आने के बाद परिवारवालों की जान में जान आई। अलग से 14 दिनों तक होम क्वारंटाइन में रहा।

20 दिन हो चुके हैं पर अब तक किसी तरह की कोई मदद नहीं मिल रही है। विक्की की मां रेणु देवी व पत्नी प्रशंसा देवी कहती हैं लॉकडाउन के बाद रोज चिता लगी रहती थी कि कैसे रहता होगा, क्या खा रहा होगा। अब यही कहना है कि सरकार काम की व्यवस्था यहीं कर दे तो उनके घरवालों को बाहर नहीं जाना पड़ेगा।

गावां निवासी राजन कुमार, वृंदावन सोसाइटी के आसपास सूरत में ही डेढ़ साल से रह रहा था। कपड़ा दुकान में मजदूरी करता था। दुकान का मालिक राजस्थान का था। उसी के पास काम करना व रहना खाना होता था। लॉकडाउन हुआ तो 5 हजार रुपये मालिक ने दिया और दुकान बंद कर बगल में रहने वाले उसके मामा के पास भेज दिया। राजन कहते हैं कि 5 हजार में 2500 रुपये मामा ने ले लिया और दो दिन बाद उसे वहीं छोड़कर मामा खुद वहां से निकल गया। उसे न तो खाना बनाना आता था न कमरे में अनाज था।

बहुत मुश्किल से चावल की व्यवस्था की तो ऐसा नौबत आ गई कि चावल को कैसे बनाना है, पानी साथ में डालना है कि बाद में वो भी फोनकर पूछता था। बगल में रहनेवाले कुछ मजदूरों ने दो सप्ताह तक खाना दिया। खुद से खाने पीने के लिए पैसा नहीं था। पहले तो 4 से 5 हजार रुपये घर भेजता था परंतु काम जब बंद हो गया तो 4 हजार रुपये घर से मंगवाया। 15 दिन जहां रहा था उसके बदले भाड़ा 1500 रुपये दिया और बमुश्किल 15 दिन बाद एक लड़के के जरिए 1500 रुपये में टिकट खरीदा और श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर के लिए निकल पड़ा।

बोकारो उतरने के बाद बस से गिरिडीह और गिरिडीह से फिर घर गावां पहुंचाया गया। राजन कहता है कि कुछ भी हो जाए दुबारा तो अब कभी बाहर नहीं जाऊंगा।

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