जानिए कोयलांचल में कब और कहां शुरू हुई महापर्व छठ की परंपरा

छठ को लेकर लोगों की सामूहिकता एवं आपसी प्रेम की भावना का प्रदर्शन अनूठा था। जीविकोपार्जन के लिए मानभूम के बाहर से आये लोगों का आपसी भाईचारा देखते ही बनता था।

By mritunjayEdited By: Publish:Mon, 12 Nov 2018 01:16 PM (IST) Updated:Mon, 12 Nov 2018 01:16 PM (IST)
जानिए कोयलांचल में कब और कहां शुरू हुई महापर्व छठ की परंपरा
जानिए कोयलांचल में कब और कहां शुरू हुई महापर्व छठ की परंपरा

धनबाद, जेएनएन। लोक आस्था का महापर्व छठ हिंदी पट्टी के राज्यों के मुख्य पर्वों में से एक है। झारखंड चूंकि कभी बिहार का ही दक्षिणी भाग रहा है, इसलिए यहां भी छठ अतिलोकप्रिय पर्वों में से एक है। धनबाद कोयलांचल में आज छठ करने वालों की संख्या लाखों में है। देश की कोयला राजधानी में सर्वप्रथम झरिया में ही छठ की शुरूआत हुई थी। कारण, कोयला खनन प्रारंभ होने के साथ 19वीं शताब्दी में पूरे मानभूम जिले में यहीं की आबादी तीव्रता से घनीभूत हुई थी। 

जनश्रुतियों के अनुसार, राजा शिवप्रसाद सिंह के समय यहां छठ पर्व की शुरूआत मानी जाती है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में झरिया की आबादी पांच हजार के करीब थी। लेकिन यह कस्बा सड़क एवं रेल मार्ग से जुड़ चुका था। यहां तक कि पुलिस स्टेशन एवं राजा द्वारा संचालित अस्पताल भी समृद्ध था। कोलियरियों का केन्द्र होने एवं व्यापार-वाणिज्य के विकास से रोजगार के अवसर तेजी से बढ़े। फलत: उत्तरप्रदेश एवं उत्तरी बिहार के काफी संख्या में लोग धनबाद कोयलांचल रोजी-रोटी की तलाश में पहुंचे। झरिया कोयला खदानों में काम करने के लिए भोजपुर, बलिया, मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना से आये श्रमिकों ने रोजी-रोटी के साथ-साथ अटूट मानवीय संबंध कोयलांचल से जोड़ लिया। 700-900 किलोमीटर दूर से आए ऐसे परिवार अपने साथ अपनी संस्कृति भी साथ लाये। जिन इलाकों से ये लोग धनबाद आये थे, वहां छठ पूजा कई वर्षों से पारंपरिक ढंग से होती आ रही थी। अब रहने का स्थान भले बदल चुका था लेकिन उनलोगों ने अपनी लोक संस्कृति का ऐतिहासिक पर्व यानी छठ का साथ नहीं छोड़ा। उनकी इस भावना का भरपूर सम्मान तत्कालीन झरिया राजा ने भी किया था। छठ करने के लिए अपनी राजशाही के अंग रहे राजा तालाब और रानी तालाब को भी जनता के लिए निर्बाध बना दिया। वैसे, उन दिनों यहां के कोयला उद्योग के अधिकांश मालिक गुजराती-मारवाड़ी थे जो छठ जैसे पर्व से अनभिज्ञ थे। लेकिन, उत्तरी बिहार एवं उत्तरप्रदेश के लोगों ने जब यहां छठ करना प्रारंभ किया तो इस पर्व के नियम, विधि-विधान, साफ सफाई का विशेष महत्व एवं लोगों की अगाध आस्था देखकर वे बहुसंख्यक गुजराती एवं मारवाड़ी परिवार प्रभावित हुए बिना रह न सके। उसका असर यह हुआ कि झरिया में छठ की शुरूआत के कुछ ही वर्षों के बादए उन दोनों वर्ग के व्यवसायी परिवारों ने भी श्रद्धापूर्वक छठ का आयोजन करना प्रारंभ कर दिया। चूंकि कोलियरी मालिकों के यहां छठ होना शुरू हो गया, तो इस पर्व की लोकप्रियता और अधिक द्रूत गति से बढ़ी और धीरे-धीरे छठ श्रद्धालुओं की संख्या हजारों तक पहुंचने लगी। झरिया और इसके आस-पास के सभी छठ व्रतधारी राजा तालाब और इससे सटे रानी तालाब में छठ करने आते थे। चूंकि राजा तालाब उन दिनों राज परिवार द्वारा नियंत्रित थाए इसलिए काफी साफ-सुथरा था। वैसा स्वच्छ तालाब पूरे इलाके में दूसरा नहीं था। इसके बारे में 1911 में प्रकाशित डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ  मानभूम में एच कपलैण्ड ने भी चर्चा की है।  

जब व्रतियों की संख्या बढऩे लगी और राजा तालाब-रानी तालाब छोटा पडऩे लगे तो लोगों ने अपनी-अपनी सुविधानुसार अन्य सरोवरों की ओर रूख किया। उन दिनों हेटलीबांध, कोयरीबांध, मोहरीबांध, भागाबांध में छोटे जलाशय हुआ करते थे। दरअसल इस जगहों के नामकरण के पीछे बांध का तात्पर्य ही तालाब या अन्य जलस्रोत था। ऐसे इलाकों में रहने वाले लोग अपने आस-पास के इन तालाबों में ही छठ करने लगे।  

    छठ को लेकर लोगों की सामूहिकता एवं आपसी प्रेम की भावना का प्रदर्शन अनूठा था। जीविकोपार्जन के लिए मानभूम के बाहर से आये लोगों का आपसी भाईचारा देखते ही बनता था। सूर्योपासना के इस महान पर्व पर रोचक एवं आदर्श उदाहरण हजारीबाग, भागलपुर, मुंगेर आदि से आये वैसे मुसलमान परिवार प्रस्तुत करते थे जो इस पर्व को लेकर होने वाली सार्वजनिक व्यवस्थाओं में हरसंभव सहयोग किया करते थे। छठ से पूर्व राजा तालाब और रानी तालाब की विशेष सफाई राज परिवार द्वारा करवायी जाती थी। वहीं कई तालाबों की सफाई की व्यवस्था कोलियरी मालिकगण भी करातेे थे। झरिया के प्रसिद्ध आनंद भवन के मालिक स्व. अर्जुन अग्रवाल ने अपने व्यक्तिगत तालाब में भी आम जनों को छठ करने की छूट दी थी। यह परंपरा आज भी चल रही है। आमजन छठ पर्व के दौरान पगडंडियों एवं मुख्य सड़कों की सफाई खुद संभालते थे। तालाबों के आस-पास पताकाएं बांधी जाती थी। धीरे-धीरे जब भीड़ ज्यादा बढऩे लगी, तो छोटे बच्चों के गुम होने की एकाध घटना हो गयी। इस समस्या के निदान के लिए और भीड़-भाड़ की व्यवस्था संभालने के लिए लोग बांस की मचान बनाकर टिन का भोंपू बनाते थे और उद्घोषणाएं कर भीड़ को नियंत्रित एवं संतुलित करते थे।    

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