वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य रूप से बजनी चाहिये खेल की घंटी

कमरों के भीतर खेले जाने वाले ऐसे खेलों से समय तो बिताया जा सकता है पर बाहर समूहों में खेले जाने वाले खेलों जैसा उत्साह, स्फूर्ति, बेहतर स्वास्थ्य, परिवेश को जानने-समझने वाली सोच का विकास अवरूद्ध हो जाता है।

By Tilak RajEdited By: Publish:Tue, 29 Aug 2017 01:40 PM (IST) Updated:Tue, 29 Aug 2017 01:40 PM (IST)
वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य रूप से बजनी चाहिये खेल की घंटी
वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य रूप से बजनी चाहिये खेल की घंटी

पिछले कई सालों में भारत ने आधारभूत संरचना, सूचना प्रौद्योगिकी, रक्षा और अंतरिक्ष के क्षेत्र में तेजी से तरक्की की है। इस प्रगति से विश्व पटल पर भारत की पहचान तेजी से उभरते देशों में हुई है। इन उपलब्धियों के बावज़ूद देश खेल-विधा में अत्यंत पिछड़ा हुआ दिखता है। सवा सौ करोड़ के देश में जब किसी वैश्विक खेल प्रतिस्पर्द्धा में हमारे एक या दो खिलाड़ी कोई पदक लाते हैं तो खेल के प्रति हमारी उदासीनता और अरूचि जग जाहिर हो जाती है। भयावह लगने वाली इस दयनीय स्थिति की जननी शायद “पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे ख़राब” जैसी सोच है जो बड़े-बुजुर्गों के मुँह से अक्सर हम स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के दौरान सुनते आये हैं।

इस असंतुलित मानसिकता से हमने न जाने कितने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में अपनी क्षमताओं के अनुरूप प्रदर्शन का मौक़ा गँवा दिया। पदक तालिका में शून्य या नगण्य पदकों की प्राप्ति साफ बताती है कि खेलों को लेकर हमारे अंदर और बाहरी परिवेश में प्रोत्साहन की घोर कमी है। महज दो-तीन तलों पर सिमटती जा रही हमारी स्कूली व्यवस्था खेलों के प्रति हमारी उदासीनता की लौ को बुझाने का ही काम कर रही है।

अस्तित्व में आते नित नये कंप्यूटर-मोबाइल आधारित काल्पनिक खेलों ने हमारी भावी पीढ़ी को असमय ही मोटा चश्मा पहनने पर विवश कर दिया है। कमरों के भीतर खेले जाने वाले ऐसे खेलों से समय तो बिताया जा सकता है पर बाहर समूहों में खेले जाने वाले खेलों जैसा उत्साह, स्फूर्ति, बेहतर स्वास्थ्य, परिवेश को जानने-समझने वाली सोच का विकास अवरूद्ध हो जाता है।

ऐसे समय में जब उम्मीदों का क्षितिज बुलंदी पर है तो हमें अपने भविष्य को बोझिल, नीरस दिनचर्या से निकाल खेलों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट कराना होगा। इस दिशा में हमें कदम बढ़ाना ही होगा केवल शारीरिक, मानसिक और व्यक्तिगत विकास के लिए नहीं अपितु एक स्वस्थ परिपाटी की शुरूआत के लिए जिसमें खेलों को भी अकादमिक पाठ्यक्रमों के बराबर का दर्ज़ा दिया जाये।

भारत में हमेशा से प्रतिभा की प्रचुरता रही जरूरत बस उसे तराशने की है। बीते तीनों ओलंपिक ने यह साबित किया कि खेल सम्बन्धी वैश्विक सुविधाओं के अभाव में भी भारतीय खिलाड़ी अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से देश और देशवासियों का सिर गर्व से ऊँचा कर पाने में सक्षम हैं। इस बात का प्रमाण भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित छोटे से राज्य त्रिपुरा से निकल रियो में फाइनल तक पहुँच लाखों लोगों की प्रशंसा पाने वाली दीपा कर्मकार है। विपरीत परिवेश में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली मैरी कॉम, साक्षी मलिक, जितू राय, दीपिका कुमारी खेल-विधा में हमारे आदर्श हैं जिनके अनुसरण की ललक हमारी भावी पीढ़ियों में जगायी जा सकती है।

सूचना प्रौद्योगिकी और चिकित्सीय क्षेत्रों में बुलंदियों को छूने वाला भारत निस्संदेह खेल विधा में अमेरिका और चीन जैसे देशों को पछाड़ कर आकाश छूने का हौसला रखता है। 

इक्कीसवीं सदी के नये भारत में बच्चों और युवाओं के बीच से मेजर ध्यानचंद, सचिन, विश्वनाथन आनंद और अभिनव बिंद्रा सरीखे भविष्य के महान खिलाड़ियों के चयन और उनको तराशने के लिए आज स्कूली व्यवस्था में वैकल्पिक विषय समझे जाने वाले और महज खाली पीरियड और पीटी पीरियड तक सिमटे खेल-विधा को अनिवार्य किये जाने की जरूरत है। स्कूलों में खेल विधा को महत्तवपूर्ण दर्ज़ा मिले, इसके लिए माता-पिता और स्कूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ‘पढ़ोगे, लिखोगे बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब’ जैसी संकीर्ण मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए परिवार और स्कूल को संयुक्त रूप से एक साथ आगे आने की जरूरत है।  

इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए टाटा टी ने अपने अभियान ‘अलार्म बजने से पहले जागो रे’ के जरिये खेल की जरूरत और उसके महत्व के बारे में बताया है। इस अभियान में लोगों से एक याचिका पर हस्ताक्षर करने की अपील की जा रही है, जिसमें स्कूलों में ‘खेल’ को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाने की मांग की गई है। आइये, हम, भारत के लोग टाटा टी के इस अभियान से खेल के क्षेत्र में स्कूली परिवेश में बदलाव की घंटी बजाएँ!

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