अब खेल का मैदान, दिलाएगा सम्मान
जिसका मुख्य कारण आज भी शिक्षा का प्राथमिक होना है। भारत के स्कूलों में शिक्षा को सर्वोपरि रख, खेलों को इसके नीचे का दर्जा मिलना ही किसी हद तक इन प्रतिकूल परिस्तिथियों के लिए जिम्मेदार है।
विकास की पटरी पर दौड़ता भारत निरंतर तकनीकी, शोध, शिक्षा तथा औद्योगिक क्षेत्र में सफलता का बिगुल बजा रहा है। दशकों पहले विकासशील कहे जाने वाले भारत का नाम आज समृद्ध देशों की सूची में आता है, लेकिन दुर्भाग्यवश सभी विधाओं में कौशल रहने के बावजूद हमारे देश में खेल की स्थिति आज भी दयनीय है। आधुनिक समय में जहां सभी काम कंप्यूटर के द्वारा तेज रफ्तार से किये जाते हैं, वहीं खेलों के हालात आज भी पुराने ढर्रे पर कायम है। हालांकि कुछेक खिलाड़ी निजी अभ्यास कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन अपेक्षित प्रतिष्ठा और गरिमा उन खिलाडियों को नसीब नहीं होती। जिसका मुख्य कारण आज भी शिक्षा का प्राथमिक होना है। भारत के स्कूलों में शिक्षा को सर्वोपरि रख, खेलों को इसके नीचे का दर्जा मिलना ही किसी हद तक इन प्रतिकूल परिस्तिथियों के लिए जिम्मेदार है।
निश्चित ही हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता है तो सिर्फ उसको परखने की। इतिहास गवाह है कि, किस प्रकार हमारे भारतीय खिलाडियों ने अद्भुत प्रदर्शन कर अनेक खिताब अपने नाम किये। ध्यानचंद, पी.टी. उषा, मिल्खा सिंह आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने सालों पहले विषम परिस्तिथियों को अनुकूल बनाते हुए नए कीर्तिमान स्थापित किये, लेकिन इन्हीं खिलाड़ियों से आगामी पीढ़ी प्रेरणा ले सके ऐसा कोई उत्साह नौजवानों में दिखाई नहीं दिया। आज क्यों नहीं हमारे एथलीट दुनिया के श्रेष्ठ एथलीट्स को टक्कर दे पार रहे हैं ? इसके पीछे की मुख्य वजह खेल के विषय को समय की बर्बादी मान लेना है। बच्चा अगर खेल की तरफ आगे बढ़ रहा है, तो उसे हतोत्साहित और डराने का काम सबसे पहले उसके अपने ही करते हैं और इसमें समाज भी बखूबी साथ देता है।
आज भी लोगों की नजरों में खेल को करियर के रूप में चुनना बेवकूफी भरा कदम लगता है। इसका सीधा असर उन खिलाड़ियों पर पड़ता है, जो यह सोचते हैं कि पदक लेकर जब वह भारत की जमीन पर उतरे, तो देश बाहें फैलाकर उनके स्वागत के लिए खड़ा हो। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अपने खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाने के मामले में भारत देश अन्य देशों के मुकाबले बहुत ही पीछे है।
अगर शिक्षा के साथ-साथ खेलों को भी प्राथमिकता दी गयी होती तो अवश्य ही हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी की तस्वीर भी कुछ अलग होती और खेल की अन्य धाराओं में भी अनेक पदक भारत ने अपने नाम कर लिए होते। कटु है, पर सत्य तो यही है कि, 2016 के ओलंपिक में भारत को अपना खाता खोलने के भी लाले पड़ गए थे, जो स्पष्ट रूप से खेल-शिक्षा एवं खेल-संसाधनों के अभाव को दर्शाता है। ये तो सौभाग्य है हमारा कि, इतने अभावों के बीच भी देश में पी.वी.सिंधु, साक्षी मलिक जैसे प्रतिभावान खिलाडी मौजूद हैं जिन्होंने अपने कड़े अभ्यास और आत्मविश्वास के दम पर ओलंपिक में जीत हासिल कर, भारत के गौरव को बढ़ाया।
यकीनन, अब समय आ गया है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को 5 इंच की मोबाइल स्क्रीन से बाहर लाकर बड़े मैदानों की विशालता का अनुभव करायें। इसके लिए देशवासियों को एक आवाज बनकर खेल को एक अनिवार्य विषय बनाना होगा तथा उभरते हुए खिलाड़ियों का मनोबल न गिरे इसलिए उनका हौसला भी बढ़ाना होगा। खेल प्रशिक्षण को शिक्षा के बराबर का दर्जा मिले और खेल को वैकल्पिक विषय से अनिवार्य विषय में बदल दिया जाये ताकि आने वाले समय में अन्य क्षेत्रों की तरह भारत, खेल में भी अग्रणी हो और किसी भी खिलाडी को अपनी योग्यता दिखाने के लिए निजी संघर्ष न करना पड़े। संभवतः इसी बदलाव के साथ, मानसिकता में बदलाव होगा, जो अवश्य ही योग्य बालक-बालिकाओं में चैम्पियनशिप जीतने के साथ-साथ देश के लिए गौरव जीतने की भावना को प्रबल कर देगा।