खबर होने तक कहीं राख न हो जाएं जंगल

प्रकृति के हाथों मजबूर चीड़ के पेड़ों की नियति कुछ ऐसी है कि खुद का अस्तित्व मिटाने के लिए वे बारूद खुद ही तैयार कर लेते हैं। उससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि जिन कंधों पर इन पेड़ों को बचाने की जिम्मेवारी है वे महज इनके खाक होने का तमाशा देखते हैं।

By JagranEdited By: Publish:Fri, 26 Apr 2019 06:52 PM (IST) Updated:Fri, 26 Apr 2019 06:52 PM (IST)
खबर होने तक कहीं राख न हो जाएं जंगल
खबर होने तक कहीं राख न हो जाएं जंगल

नीरज पराशर, चितपूर्णी

प्रकृति के हाथों मजबूर चीड़ के पेड़ों की नियति कुछ ऐसी है कि खुद का अस्तित्व मिटाने के लिए वे बारूद खुद ही तैयार कर लेते हैं। उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि जिन कंधों पर इन पेड़ों को बचाने की जिम्मेवारी है, वे महज इनके खाक होने का तमाशा देखते हैं।

जिला ऊना में चीड़ प्रजाति के पेड़ का सर्वाधिक घनत्व चितपूर्णी क्षेत्र में है। यह क्षेत्र आग की दृष्टि से अतिसंवेदनशील है। घंगरेट से लेकर लोहारा-सूरी और सोहारी टकोली तक के क्षेत्र में चीड़ के पेड़ों का बड़ा दायरा है। इसी वजह से यह क्षेत्र वन्य प्राणियों का सुरक्षित ठिकाना रहा है। यही कारण है कि राष्ट्रीय पक्षी मोर से लेकर सांभर तक यहां बिना किसी खौफ के विचरते हैं। बावजूद अब किसी की इस वन्य क्षेत्र को नजर लग गई है। पिछले दस वर्ष का रिकॉर्ड देखें तो हजारों हेक्टेयर वन्य क्षेत्र आग के कारण राख हुआ है। इस वजह से वन्य प्राणियों में भी निरंतर कमी दर्ज हो रही है। गर्मी आते ही यहां के जंगल दहकने लगते हैं। जंगल में एक बार आग लगने के बाद कई दिनों तक पेड़ धू-धू कर जलते रहते हैं। इस बार भी तापमान गति पकड़ चुका है और चीड़ की पत्तियां पेड़ों के नीचे जमा हो चुकी हैं। ऐसे में विभाग और आम जनता ने सकारात्मक प्रयास नहीं किए तो यह जंगल सबको खबर होने से पहले खाक हो जाएंगे।

वन विभाग के प्रयास कागजों तक सीमित

जंगल को आग से बचाने के लिए वन विभाग के प्रयास सीमित ही नजर आते हैं। कंट्रोल बर्निग के नाम पर कुछ हजार रुपये की राशि मिलती है, जिससे कुछ ही फायर लाइन्स क्लीयर होती हैं, जबकि वनों का क्षेत्रफल काफी लंबा-चौड़ा है। जंगलों को आग से कैसे बचाया जाए, पर भी कागजों में तो बहुत बातें होती हैं, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता।

कई जगहों पर चल रही कुल्हाड़ी

चितपूर्णी क्षेत्र के बधमाणा, घंगरेट, धर्मसाल मंहता, कुदेट, आरनवाल, लोहारा, अंबटिल्ला, सपौरी, दंगेट और सलोई के क्षेत्र में बहुतायत में चीड़ के पेड़ हैं। इन पेड़ों पर कभी कुल्हाड़ी तो कभी बिरोजे के दोहन पर भी अत्याचार होता है। चीड़ के एक पेड़ को तैयार होने में 25 वर्ष का समय लगता है।

स्थानीय लोगों की भूमिका न के बराबर

वन विभाग के पास स्टाफ की कमी है। जंगल में आग लगने के बाद बेशक विभाग के अधिकारी व कर्मचारी इस आपदा से निपटने के पूरा प्रयास करते हैं, लेकिन अब आग को बुझाने में स्थानीय लोगों की भूमिका न के बराबर रह रही है। अगर ग्रामीण मदद करें तो ऐसी घटनाओं में संलिप्त लोगों पर नजर रखी जा सकती है।

उपाय कर रहा है विभाग :आरओ

भरवाई वन विभाग के रेंज अधिकारी प्यार सिंह का कहना है कि फायर सीजन में विभाग पूरी स्थिति पर नजर रखे हुए है। जंगल को आग से बचाने के लिए विभाग प्रयास कर रहा है। फायर लाइंस क्लीयर कर दी गई हैं और फायर वाचर भी नियुक्त किए जा रहे हैं।

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