शोले में 'सांभा' के किरदार से मशहूर हुए मैक मोहन की बेटियां करने जा रही हैं ये काम, जानकार हो जाएंगे खुश

हालीवुड ही नहीं मुझे बालीवुड में भी विशाल भारद्वाज और अयान मुखर्जी जैसे डायरेक्टर्स से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैंने उनसे सीखा कि वह किस तरह से अपने शाट लेते हैं और अपना फ्रेम बनाते हैं। मैं कभी फिल्म स्कूल तो गई नहीं हूं।

By Priti KushwahaEdited By: Publish:Fri, 11 Jun 2021 04:31 PM (IST) Updated:Fri, 11 Jun 2021 04:31 PM (IST)
शोले में 'सांभा' के किरदार से मशहूर हुए मैक मोहन की बेटियां करने जा रही हैं ये काम, जानकार हो जाएंगे खुश
Photo Credit - Manjari Makijany Instagram Photo Screenshot

स्मिता श्रीवास्तव, मंबई। सुपरहिट फिल्म 'शोले' में सांभा के किरदार से चर्चित अभिनेता मैकमोहन की बेटियां मंजरी माकिजानी और विनती माकिजानी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं। उनकी स्केटबोर्डिंग पर आधारित फिल्म 'स्केटर गर्ल' आज नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो रही है। इसका निर्देशन मंजरी ने किया है जबकि उनकी बहन विनती ने इसे प्रोड्यूस किया है। लास एंजिलिस में रह रही मंजरी इससे पहले कई शार्ट फिल्म बना चुकी हैं। फिल्म औक करियर के सफर पर स्मिता श्रीवास्तव से उनके वीडियो काल साक्षात्कार के अंश:

 

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आपके पिता अभिनेता थे पर आपने निर्देशन में करियर बनाने का फैसला कैसे लिया?  

फिल्मों में सिनेमैटोग्राफी से लेकर निर्देशन और एक्टिंग तक बहुत सारे रोल होते हैं। डायरेक्शन की तरफ मेरा आकर्षण स्वाभाविक तौर पर रहा है। इसकी शुरुआत मैंने बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर की। मैंने विशाल भारद्वाज और अयान मुखर्जी को असिस्ट किया। मुझे लगा कि अगर मुझमें यह टैलेंट है तो मैं इसको जरा टेस्ट तो करूं। फिर मैंने अपनी पहली शार्ट फिल्म डायरेक्ट की। उसे फिल्म फेस्टिवल्स में भेजा। फिल्म को काफी सराहना मिली। तब मुझे यकीन हुआ कि मैं भी डायरेक्ट कर सकती हूं। इस तरह मेरे सफर की शुरुआत हुई।  

आपने क्रिस्टोफर नोलन जैसे प्रख्यात हॉलीवुड के निर्देशकों को भी असिस्ट किया है... 

उन फिल्मों में मेरा पार्ट बहुत छोटा था। हालीवुड फिल्मों में बहुत सारे असिस्टेंट होते हैं, मैं भी उनमें से एक थी। हालीवुड फिल्म 'द डार्क नाइट राइजेज' के एक हिस्से की शूटिंग भारत में हुई थी, मैं उसमें असिस्टेंट डायरेक्टर थी। मैंने 2018-19 अपनी पहली फीचर फिल्म डायरेक्ट की।

 

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हालीवुड के कौन से अनुभव इस फिल्म को बनाने में काम आए?  

हालीवुड ही नहीं मुझे बालीवुड में भी विशाल भारद्वाज और अयान मुखर्जी जैसे डायरेक्टर्स से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैंने उनसे सीखा कि वह किस तरह से अपने शाट लेते हैं और अपना फ्रेम बनाते हैं। मैं कभी फिल्म स्कूल तो गई नहीं हूं। हालीवुड प्रोडक्शन में मैंने देखा कि इतनी बड़ी मशीनरी कैसे चलती है। हमारी टीम इंटरनेशनल टीम थी, हमारे डीओपी कनाडा से आए थे, कास्टयूम डिजाइनर से लेकर कई लोग ऐसे हैं, जो इंडिया में ही इंटरनेशनल फिल्मों में काम करते हैं। लीड किरदार में ज्यादातर महिलाएं थी, हमने विविधता और प्रस्तुतीकरण पर फोकस किया।  

इस फिल्म का नाम पहले डेजर्ट डाल्फिन था?  

डेजर्ट डाल्फिन इस फिल्म का वर्किंग टाइटल था, क्योंकि हमारा जो स्केटपार्क था उसका नाम डेजर्ट डाल्फिन स्केट पार्क था।  

इस फिल्म की शुरुआत कैसे हुई?  

मैंने देखा इंडिया में भी स्केटबोर्ड का ट्रेंड धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। मध्य प्रदेश में जनवार नामक गांव है, जहां पर स्केट बोर्ड का बहुत सकारात्मक असर हुआ है। फिर वहां रिसर्च करते-करते हमने केरल में स्थित कोवलम स्केट क्लब के बारे में जाना। यह समझा कि वहां के लोगों पर स्केटबोर्डिंग का क्या प्रभाव हो रहा है। स्केटबोर्ड का देश के कई अन्य हिस्सों में भी बहुत सकारात्मक असर पड़ रहा है। स्केटिंग बंदिशों को तोडऩे और स्वतंत्र जिंदगी जीने जैसा रिप्रेजेंट करता है। मैंने और मेरी बहन ने तय किया कि एक ऐसी फिल्म बनाएंगे जहां स्केटबोर्ड स्वतंत्र जीवन के उत्प्रेरक के तौर पर काम करता हो। आपकी बहन इसकी प्रोड्यूसर हैं।

 

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लेखिका और निर्देशक आप हैं... 

मेरी बहन ने इस फिल्म में कई रोल निभाए हैं। उसने कास्टिंग की है, सेकेंड यूनिट डायरेक्टर, को राइटर और प्रोड्यूसर है। हम एक पार्टनरशिप में काम करते हैं, इसलिए हम दोनों ने इसे साथ में लिखा है। हमारे बीच स्वाभाविक समझ थी। मेरे पति इमैनुएल भी इस फिल्म के प्रोड्यूसर है। फिल्म का क्रू हमारे लिए परिवार की तरह था। 

कहानी राजस्थान की पृष्ठभूमि में सेट है। वहां शूटिंग की क्या चुनौतियां रहीं? 

राजस्थान बहुत खूबसूरत है। मुझे बहुत पसंद है। फिल्म के लिए हमें स्केटपार्क बनाना था। हमने सोचा हमें स्केटपार्क खुद बनाना चाहिए, क्योंकि इसके माध्यम से हमें एक गांव में बदलाव लाने का मौका मिल रहा था। राजस्थान में स्केटपार्क नहीं था। एक अच्छे बैकग्राउंड की तलाश करनी थी जहां कंक्रीट रोड भी हो। इन दोनों चीजों के साथ हमें ऐसी जगह ढूंढऩी थी, जहां ढेर सारे बच्चे हो, जो स्केटपार्क का उपयोग कर पाएं। इन तीनों चीजों का काम्बिनेशन ढूंढऩा, मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी जो हमें बाद में खेमपुर गांव में मिला। वहां के बच्चों ने एक ऐसी गाड़ी बनाई थी, जो  स्केटबोर्ड जैसी थी। हमने तय किया कि यही सही जगह है। वहां की लड़कियों से बातचीत करके हम प्रेरित हुए और उन्हें फिल्म में शामिल किया।

 

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फिल्म मेकिंग में करियर को लेकर पिता से क्या सुझाव मिला था? 

वह हमेशा से ही हमारा उत्साहवर्धन करते रहे हैं। मैं इस फील्ड में बाधाओं का विचार किए बिना आई थी।  

शूटिंग के दौरान सबसे मुश्किल और यादगार चीज क्या थी? 

हमने फिल्म शूट करने के बाद उस गांव में जो स्केटपार्क छोड़ा है वह सबसे खास था। हम स्केटपार्क उस समुदाय के लिए छोडऩा चाहते थे ताकि उसके माध्यम से वहां लगातार बदलाव होता रहे। बच्चे वहां पर चैंपियनशिप के लिए सीख पाएंगे। वहां के बच्चों ने हाल ही में नेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया। 

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