अच्छा ऑडिशन व्यर्थ नहीं जाता : मुकेश छाबड़ा

हिंदी फिल्म जगत लगातार सुसंगठित इंडस्ट्री की शक्ल ले रहा है। कलाकारों के चयन के लिए भी एक अलग विभाग अस्तित्व में आ चुका है। उसे करने वाले कास्टिंग डायरेक्टर कहलाते हैं। मौजूदा दौर में उसके पुरोधा मुकेश छाबड़ा हैं। उन्होंने 'काय पो छे', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से लेकर 'पीके'

By Monika SharmaEdited By: Publish:Mon, 06 Jul 2015 08:18 AM (IST) Updated:Mon, 06 Jul 2015 08:40 AM (IST)
अच्छा ऑडिशन व्यर्थ नहीं जाता : मुकेश छाबड़ा

नई दिल्ली, अमित कर्ण। हिंदी फिल्म जगत लगातार सुसंगठित इंडस्ट्री की शक्ल ले रहा है। कलाकारों के चयन के लिए भी एक अलग विभाग अस्तित्व में आ चुका है। उसे करने वाले कास्टिंग डायरेक्टर कहलाते हैं। मौजूदा दौर में उसके पुरोधा मुकेश छाबड़ा हैं। उन्होंने 'काय पो छे', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से लेकर 'पीके' जैसी फिल्मों की कास्टिंग की है। हाल-फिलहाल में बड़े प्रोजेक्ट में उनके खाते में 'दंगल' है। छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल में उन्होंने कास्टिंग डायरेक्शन से जुड़े पहलुओं पर दैनिक जागरण के फिल्म एडीटर अजय ब्रह्मात्मज से विस्तृत बातचीत की।

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उन्होंने बताया, 'बेसिक चीज है एक्टिंग के क्राफ्ट के बारे में जानना। फिर ऑडिशन पूरी शिद्दत से करना, क्योंकि वही आप की पूंजी है, जो इंडस्ट्री के लोगों में सर्कुलेट होती है। अब वे जमाने लद गए, जब किसी स्टूडियो के सामने या पीछे प्रोड्यूसर की नजर पड़ती थी और अदाकारों को रोल मिल जाते थे। अब वह काम बहुत सुसंगठित हो चुका हैं। इंडस्ट्री में कई विश्वसनीय कास्टिंग डायरेक्टर हैं। उनके ऑफिस जाकर ऑडिशन दें। आप में स्पार्क होगा तो आप यकीनन चयनित होंगे।'

'दूसरी अहम चीज मैं यह कहना चाहूंगा कि आप में एक्टिंग की स्किल है कि नहीं उसका सेल्फ असेसमेंट होना। मेरी ऑफिस में रोजाना 300 लोग ऑडिशन देने आते हैं, पर सही मायनों में उनमें महज एक से दो लोगों में मेटल होता है। आप उन्हें फॉलो करें तो बात बनेगी। मैं सुशांत सिंह राजपूत का उदाहरण देना चाहूंगा। वे टीवी के पॉपुलर फेस रहे हैं, पर जब 'काय पो छे' की बात आई तो मैंने उनका तीस दिन तक ऑडिशन लिया। आखिर में जब उनके ऑडिशन की क्लिप बनी तो वह बंदा लगातार 11 मिनट तक नॉन-स्टॉप एक्टिंग कर चुका था। 'ब्योमकेश बख्शी' के लिए वे चार महीने तक कोलकाता में रहे। अगली फिल्म 'एमएस धोनी' के लिए वे महीनों पहले लग चुके हैं। राजकुमार राव बेहद अनुशासित जिंदगी जीते हैं। वे अपना पूरा फोकस सिर्फ एक्टिंग पर रखते हैं। तो एक्टिंग भी साधना ही है। एक बात और वह भी क्राफ्ट ही है। कई सितारों के बच्चों की रगों में वह शुरूआत से रहा हो, मगर वह ऐसी चीज नहीं जो किसी बपौती है। वे कतई निराश न हों, जो गैर-फिल्मी परिवार से हैं।
जो लोग थिएटर बैकग्राउंड के हैं, उनके प्रति मेरे दिल में इज्जत है। गैंग्स ऑफ वासेपुर के दौरान पंकज त्रिपाठी ने सुल्तान का रोल प्ले किया था। उनको लेकर अनुराग कश्यप से लिटरली मेरी बहस हो गई थी। मैं कुर्सी छोड़कर चला गया था, बाद में उनका ऑडिशन देखने के बाद अनुराग सहमत हुए। ऐसे ही 'काय पो छे' के लिए अभिषेक कपूर राजकुमार राव के नाम पर हिचक रहे थे, पर बाद में वे उस फिल्म का हिस्सा बने और देखिए क्या कमाल का काम किया है?

जो लोग कास्टिंग डायरेक्शन को पैशन बनाना चाहते हैं, उनसे मेरी रिक्वेस्ट होगी कि एक तो क्राफ्ट को समझें। नेटवर्किंग में माहिर बनें। फिर डायरेक्टर के विजन को समझें। कलाकारों के लिए उसकी डिमांड और बजट क्या है, उस के अनुरूप काम को अंजाम दें। एक चीज और आप की याददाश्त बड़ी शॉर्प होनी चाहिए। फिल्म शाहिद में शाहिद की मां का रोल जिस बंदी ने किया था, उनका ऑडिशन आठ साल पहले हुआ था। वे तो एक्टिंग का काम छोड़ टीचर बन चुकी थीं हिसार में, मगर उन्हें मैंने फिल्म का हिस्सा बनाया और वे नोटिस हुईं। कुछ में मिसकास्टिंग भी हुई। जैसे बॉम्बे वेल्वेट में एक कलाकार की कास्टिंग को लेकर अनुराग और मैंने दोनों ने सहमति जताई कि यार उसकी जगह किसी और को लेना था।

कास्टिंग का काम थकाऊ होता है। मिसाल के तौर पर दंगल के लिए हमें चार लड़कियां चाहिए थीं, जो आमिर खान सर की बेटी की भूमिका में हैं। उनके लिए हमने 21,000 लड़कियों का ऑडिशन लिया। इसी तरह चिल्लर पार्टी के लिए हमें नौ बच्चे चाहिए थे। उनके लिए हमने नौ हजार बच्चों के ऑडिशन लिए।

मैं शुरू से इसी फील्ड में आने को लेकर स्पष्ट था। उसका आगाज रंग दे बसंती से हुआ। मैं दिल्ली में था। उस फिल्म के लिए मैंने कास्टिंग की। ढेर सारे एक्टर को जानता भी था, क्योंकि उससे पहले एनएसडी में टीआई के लिए आठ साल एक्टिंग वर्कशॉप की थी। वहां से फिर मुंबई आया। प्रारंभिक लेवल पर इम्तियाज अली, अनुराग कश्यप का पूरा साथ मिला। फिर इसी का होकर रह गया।

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