Lok Sabha Election: दलों का दमखम, DMK को अपनी ही छवि से खतरा; BJP के साथ अपने भीतर की उलझनों से लड़ रही स्टालिन की पार्टी

राजसत्ता में वैदिक प्रभुत्व को चुनौती देकर दक्षिण भारत की राजनीति में आने-छाने और दशकों तक प्रभावशाली बने रहे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) को अपनी ही छवि से खतरा दिखने लगा है। कभी सनातन कभी ब्राह्मण तो कभी ईश्वर पर दिए गए विवादित बयानों ने द्रमुक के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। उत्तर भारत की तुलना में तमिलनाडु का चुनावी मैदान थोड़ा अलग किस्म का है।

By Jagran NewsEdited By: Sonu Gupta Publish:Mon, 25 Mar 2024 06:16 AM (IST) Updated:Mon, 25 Mar 2024 06:16 AM (IST)
Lok Sabha Election: दलों का दमखम, DMK को अपनी ही छवि से खतरा;  BJP के साथ अपने भीतर की उलझनों से लड़ रही स्टालिन की पार्टी
स्टालिन की पार्टी DMK भाजपा के साथ-साथ अपने भीतर की उलझन से भी लड़ रही है। फाइल फोटो।

अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। राजसत्ता में वैदिक प्रभुत्व को चुनौती देकर दक्षिण भारत की राजनीति में आने-छाने और दशकों तक प्रभावशाली बने रहे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) को अपनी ही छवि से खतरा दिखने लगा है।कभी सनातन, कभी ब्राह्मण तो कभी ईश्वर पर दिए गए विवादित बयानों ने द्रमुक के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है।

भाजपा की उभरती विचारधारा, बढ़ता दायरा और उत्तर से दक्षिण का सांस्कृतिक समागम के चलते द्रमुक को इस बार भाजपा के साथ अपने भीतर की उलझन से भी लड़ना पड़ रहा है।

भगवान मुरुगन के शरण में द्रमुक

दो महीने पहले तक उदयनिधि स्टालिन, ए राजा एवं सेंथिल कुमार के सनातन विरोधी बयानों के साथ खड़े द्रमुक का अचानक यू-टर्न लेकर भगवान मुरुगन की शरण में जाने की घोषणा बताती है कि इस चुनाव में उसे सबसे कड़ी चुनौती उसकी उस विचारधारा से मिलने वाली है, जिसे वह दशकों से ओढ़ती-बिछाती आ रही है। सनातन विरोधी राजनीति करने वाली द्रमुक अब भगवान मुरुगन पर ग्लोबल कान्फ्रेंस का आयोजन करने जा रही है।

इस मामले में द्रमुक को मिला लाभ

उत्तर भारत की तुलना में तमिलनाडु का चुनावी मैदान थोड़ा अलग किस्म का है। इसे जानने के लिए एक शताब्दी पहले की सामाजिक एवं राजनीतिक जमीन की ओर लौटना होगा। तमिलनाडु में ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए जस्टिस पार्टी की स्थापना 1919 में की गई थी। द्रविड़ स्वाभिमान जगाकर मात्र एक वर्ष में ही यह पार्टी सत्ता में आ गई।

1925 में पेरियार रामास्वामी ने इस भावना को और भड़काया, जिससे उस क्षेत्र में ब्राह्मणों का दबदबा कम होता चला गया। वर्ष 1949 में पेरियार से अलग होकर सीएन अन्नादुरई ने द्रमुक की स्थापना की। वैचारिक आधार को बनाए रखकर ब्राह्मणों के वर्चस्व को पूरा खत्म कर दिया। दक्षिण में द्रविड़ स्वाभिमान की भावना आज भी रची-बसी है। हिंदी विरोधी आंदोलनों ने भी दक्षिण को उत्तर से अलग किया है, जिसका सबसे ज्यादा लाभ द्रमुक ने उठाया है।

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छह दशक से द्रमुक की हनक

तमिलनाडु में 1967 के पहले तक कांग्रेस का पराक्रम दिखा, लेकिन उसके बाद द्रमुक का ऐसा सिक्का चला कि अभी तक दोनों बड़े राष्ट्रीय दल सफलता से काफी दूर हैं। 1965 में पहली बार हिंदी को राजभाषा के रूप में पूरे देश में लागू करने का प्रयास हुआ तो इसके विरोध का फायदा अन्नादुरई ने उठाया। उनके नेतृत्व में 1967 में द्रमुक ने पहली बार कांग्रेस को उखाड़ फेंका और अन्नादुरई देश के पहले गैर-कांग्रेसी सीएम बन गए।

इन लोगों ने 42 साल तक संभाली सत्ता की कमान

उनके दो प्रमुख शिष्य थे-एमजी रामचंद्रन और करुणानिधि। दोनों पहले द्रमुक में थे, किंतु 1969 में अन्नादुरई के निधन के बाद दोनों अलग राह पर चल निकले। द्रमुक का नेतृत्व करुणानिधि के पास आ गया। रामचंद्रन ने 1972 में अलग पार्टी एडीएमके बना ली। इसे बाद में एआइएडीएमके नाम दिया गया। फिर तमिलनाडु की सत्ता इन्हीं दोनों के पास आती-जाती रही। करुणानिधि, जयललिता एवं रामचंद्रन ने 42 वर्ष तक सत्ता संभाली।

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