यह पहली बार नहीं जब भारत को पाक से संबंध सुधार की पहल पर विवश होना पड़ा

यह पहली बार नहीं जब भारत को पाकिस्तान से संबंध सुधार की अपनी पहल पर यकायक विराम लगाने के लिए विवश होना पड़ा हो।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 22 Sep 2018 10:17 AM (IST) Updated:Sat, 22 Sep 2018 10:17 AM (IST)
यह पहली बार नहीं जब भारत को पाक से संबंध सुधार की पहल पर विवश होना पड़ा
यह पहली बार नहीं जब भारत को पाक से संबंध सुधार की पहल पर विवश होना पड़ा

जम्मू-कश्मीर में सीमा सुरक्षा बल के एक जवान को वीभत्स तरीके से मारे जाने और फिर तीन पुलिस कर्मियों की हत्या के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के अवसर पर पाकिस्तान के विदेश मंत्री से भारतीय विदेश मंत्री की मुलाकात का कोई औचित्य नहीं रह गया था। न्यूयार्क में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की मुलाकात तय होने की जानकारी सार्वजनिक होने के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर में सीमा पर और सीमा के अंदर पाकिस्तान प्रायोजित जैसा खौफनाक आतंक देखने को मिला उससे आने वाले दिनों में पाकिस्तानी सेना के साथ-साथ उसके साये में पलते आतंकियों की ओर से खून-खराबा तेज होने का अंदेशा बढ़ गया था। हो सकता है कि पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की मुलाकात को लेकर गंभीर हों, लेकिन पाकिस्तानी सेना और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी के इरादे तो कुछ और ही दिखते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तानी सेना या तो इमरान की पहल को पटरी से उतारने पर तुली थी या फिर भारत के प्रति अपनी नफरत का प्रदर्शन करने पर आमादा थी। शायद इसी कारण उसने आतंकियों के साथ मिलकर सीमा सुरक्षा बल के एक जवान को धोखे से मारने के बाद पशुवत आचरण किया। कायदे से सभ्य समाज को विचलित करने वाली इस घटना के बाद ही विदेश मंत्री स्तर की मुलाकात खारिज कर देनी चाहिए थी। भारतीय नेतृत्व ने चाहे जो सोचकर विदेश मंत्री स्तर की मुलाकात के लिए हामी भरी हो, उसे इमरान खान का असली चेहरा तभी दिख जाना चाहिए था जब उनकी सरकार ने आतंकी बुरहान वानी के नाम पर डाक टिकट जारी किया था। अच्छा होता कि जवाबी चिट्ठी के जरिये उनसे पूछा जाता कि क्या वह आतंकियों का गुणगान करके भारत से संबंध सुधारने की इच्छा रखते हैं?

यह पहली बार नहीं जब भारत को पाकिस्तान से संबंध सुधार की अपनी पहल पर यकायक विराम लगाने के लिए विवश होना पड़ा हो। दशकों से ऐसा ही होता चला आ रहा है। पाकिस्तान वार्ता की गुहार लगाता है। इस पर देर-सबेर भारत अपने कदम आगे बढ़ाता है, लेकिन वह हर बार उससे धोखा खाता है। भारत को पाकिस्तान के हाथों धोखा खाने के इस सिलसिले को तोड़ना ही होगा। यह सिलसिला पाकिस्तान के ऐसे निरीह शासकों से बातचीत करने से नहीं टूटने वाला जिनके हाथ में वास्तविक सत्ता नहीं होती। आखिर भारतीय नेतृत्व इससे अपरिचित कैसे हो सकता है कि पाकिस्तान में सत्ता की असली कमान तो वहां की सेना के हाथ है और वह भारत से बदला लेने की सनक से बुरी तरह ग्रस्त है? यह ठीक नहीं कि भारत पाकिस्तानी सेना की सनक का इलाज करने के बजाय उसके दबाव में काम करने को मजबूर प्रधानमंत्रियों से बात करने की पहल करता रहता है। नि:संदेह केवल इतना ही पर्याप्त नहीं कि भारत ने एक और बार पाकिस्तान से बातचीत करने से कदम पीछे खींच लिए। कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि कुछ समय बाद ऐसे ही हालात से फिर न दो-चार होना पड़े। इसके लिए किसी नई रणनीति पर काम करना होगा। यह उचित नहीं कि भारत की पाकिस्तान संबंधी नीति विकल्पहीनता से ग्रस्त दिखे। 

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