दमनकारी दौर की याद: आज के दौर से तुलना करना आपातकाल पर पर्दा डालने जैसा

आज की तुलना आपातकाल के दिनों से करना और मोदी सरकार पर तानाशाही तौर-तरीके अपनाने के आरोप मढऩा एक तरह से आपातकाल के दौरान अत्याचारों पर पर्दा डालना है। आपातकाल के काले अध्याय पर न तो पर्दा डाला जा सकता है और न ही इसे भुलाया जा सकता है।

By Arun Kumar SinghEdited By: Publish:Sun, 26 Jun 2022 10:23 PM (IST) Updated:Sun, 26 Jun 2022 10:23 PM (IST)
दमनकारी दौर की याद: आज के दौर से तुलना करना आपातकाल पर पर्दा डालने जैसा
आपातकाल के दौरान किए गए अत्याचारों पर पर्दा डालना ही है।

 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में जिस तरह आपातकाल की चर्चा की और युवाओं को विशेष रूप से उन काले दिनों की याद दिलाई, वह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि उस दमनकारी दौर को भूला नहीं जा सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जिस सामंती मानसिकता के चलते 1975 में 25 जून की रात को देश पर आपातकाल थोपा गया था, उसके अवशेष अभी भी नजर आते रहते हैं।

इतना ही नहीं, उसके जैसा आचरण भी होता दिखता है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले का कांग्रेस जनों ने सड़कों पर उतरकर जैसा उग्र विरोध किया था उसकी एक झलक अभी हाल में तब देखने को मिली जब प्रवर्तन निदेशालय नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी से पूछताछ कर रहा था। इस पूछताछ को मोदी सरकार की तानाशाही बताकर जमकर हंगामा किया गया। इस तरह का काम वही लोग कर सकते हैं, जो खुद को नियम-कानूनों और देश से ऊपर मानते हों। बेहतर हो कि ऐसे लोग मोदी सरकार पर आरोप मढऩे से पहले अपने भीतर झांकें और लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ तथा उसके महत्व को समझने की कोशिश करें।

वर्तमान परिस्थितियों को आपातकाल की तरह बताने वाले लोग उन दिनों की याद करें तो अच्छा है जब लोगों से जीने का अधिकार छीन लिया गया था, लाखों लोगों को जेलों में डाल दिया गया था और मीडिया के साथ बोलने की आजादी का निर्ममता से दमन किया गया था। आज की स्थितियों की तुलना आपातकाल के दिनों से करना और मोदी सरकार पर तानाशाही तौर-तरीके अपनाने के आरोप मढऩा एक तरह से आपातकाल के दौरान किए गए अत्याचारों पर पर्दा डालना ही है।

आपातकाल के काले अध्याय पर न तो पर्दा डाला जा सकता है और न ही इसे भुलाया जा सकता है। आपातकाल एक तरह की सामंतशाही ही था। दुर्भाग्य से सामंती मानसिकता वाले राजनीतिक दलों की आज भी कमी नहीं। आम तौर पर वे वही राजनीतिक दल हैं जो परिवारवाद की राजनीति को न केवल प्रश्रय देते हैं, बल्कि उसे येन-केन-प्रकारेण उचित ठहराने की भी कोशिश करते हैं।

लोकतंत्र में जिस तरह सामंतवादी मानसिकता वाले दलों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती उसी तरह वंशवादी दलों के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। यदि भारतीय लोकतंत्र को सबल बनाना है तो देश की जनता को परिवारवादी दलों से मुक्ति पानी ही होगी। आपातकाल का स्मरण केवल इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि अतीत में एक अन्यायपूर्ण कार्य हुआ था, बल्कि इसलिए भी याद किया जाना चाहिए ताकि भविष्य में पुरानी भूलें दोहराई न जाएं।

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