गाय के नाम पर

गाय के नाम पर हो रही हिंसक घटनाओं का सिलसिला खत्म न होने के कारण यह पहले से तय था कि संसद के इस सत्र में यह मसला उठेगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 20 Jul 2017 02:23 AM (IST) Updated:Thu, 20 Jul 2017 04:05 AM (IST)
गाय के नाम पर
गाय के नाम पर

गाय के नाम पर हो रही हिंसक घटनाओं का सिलसिला खत्म न होने के कारण यह पहले से तय था कि संसद के इस सत्र में यह मसला उठेगा। ऐसा ही हुआ और विपक्ष ने बेलगाम गौ रक्षकों के उत्पात को लेकर केंद्र सरकार की घेराबंदी की। हालांकि प्रधानमंत्री ने संसद सत्र के पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में गाय के नाम पर हो रही हिंसा रोकने के मामले में राज्य सरकारों की भूमिका स्पष्ट करते हुए उन्हें सजगता दिखाने को कहा था, लेकिन विपक्षी दलों ने इस मसले पर केंद्र सरकार को ही जिम्मेदार ठहराने की हर संभव कोशिश की। ऐसी कोशिश राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने में सहायक हो सकती है, लेकिन इससे यह सच्चाई नहीं छिप सकती कि कानून एवं व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मसला है। यह अजीब है कि राज्य सरकारें अपने अधिकार क्षेत्र वाले इस विषय को लेकर खूब मुखर तो रहती हैं, लेकिन इस पर कम ही ध्यान देती हैं कि कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने वाले तत्वों पर सही तरह से लगाम लगे। क्या यह बेहतर नहीं होता कि सभी दल अपने-अपने दल की सरकारों को हर किस्म के असामाजिक तत्वों पर लगाम लगाने के लिए कहते? यह साबित करना समस्या का सरलीकरण करना और तंग नजरिये का ही परिचय देना है कि केवल भाजपा शासित राज्यों में ही असामाजिक तत्व बेलगाम हैं अथवा भीड़ की हिंसा सिर्फ इन्हीं राज्यों में देखने को मिल रही है? चूंकि विपक्षी दल यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि बेलगाम गौरक्षक भाजपा से जुड़े हैं अथवा उसका समर्थन पा रहे हैं इसलिए इस दल के नेताओं को ऐसे तथाकथित गौ सेवकों से न केवल दूरी बनानी चाहिए, बल्कि उन्हें चेताना भी चाहिए।
कानून हाथ में ले रहे गौरक्षक भाजपा के साथ-साथ सच्चे गौ सेवकों को भी बदनाम कर रहे हैं। गायों की रक्षा के नाम पर हिंसा का सहारा लेने वाले तत्वों के बारे में प्रधानमंत्री ने यह सही कहा था कि ये फर्जी गौरक्षक हैं। यदि कोई सच्चा गौ रक्षक है तो वह कैसे भी हालात हों, हिंसा का सहारा ले ही नहीं सकता। गौ सेवा की अवधारणा में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं और न ही हो सकता है। क्या यह विचित्र नहीं कि एक ओर तो तथाकथित गौ रक्षकों की उग्रता बढ़ी है और दूसरी ओर गायों की दुर्दशा में कहीं कोई कमी आती नहीं दिख रही है? क्या यह कहा जा सकता है कि सड़कों पर छुट्टा घूमती गायों की संख्या में कमी आई है? आखिर गायों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरने वाले कितने गौरक्षक ऐसे हैं जिन्होंने गौ शालाओं के लिए जमीन और धन का दान किया है? क्या ऐसे गौरक्षकों ने इस सवाल का जवाब खोजा है कि बीमार, बूढ़ी और दूध न देने वाली गायों का क्या किया जाए? इस सवाल से मुंह मोड़ना सच्चाई का सामना करने से बचना है। चूंकि अब यह भी देखने में आ रहा है कि गौरक्षकों की उग्रता के चलते गरीब किसानों को गाय बेचने-खरीदने में कठिनाई आ रही है इसलिए राज्य सरकारों को चेतना चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि हिंसा का सहारा ले रहे कथित गौ रक्षक समाज के साथ-साथ गायों के लिए भी मुसीबत बन रहे हैं।

[ मुख्य संपादकीय ]

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