बस कुछ कहना है: सरकार की आलोचना-निंदा करते समय न तर्क, न ही सार्थक सुझाव

असल समस्या यही है कि सरकार की आलोचना और निंदा करते समय न तो कोई तुक की बात की जा रही और न ही सार्थक सुझाव दिया जा रहा है।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Fri, 05 Jun 2020 08:17 AM (IST) Updated:Fri, 05 Jun 2020 08:17 AM (IST)
बस कुछ कहना है: सरकार की आलोचना-निंदा करते समय न तर्क, न ही सार्थक सुझाव
बस कुछ कहना है: सरकार की आलोचना-निंदा करते समय न तर्क, न ही सार्थक सुझाव

बीते कुछ समय से पत्रकार की भूमिका में नजर आ रहे राहुल गांधी ने इस बार उद्योगपति और बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज से बातचीत की। इसका अनुमान पहले से था कि मोदी सरकार के आलोचक रहे राजीव बजाज राहुल गांधी से बातचीत में क्या कुछ कहेंगे? इस पर हैरानी नहीं कि उन्होंने काफी कुछ वही कहा जो राहुल गांधी के मन मुताबिक था। लॉकडाउन लागू किए जाने के करीब ढाई माह बाद राहुल गांधी और राजीव बजाज ही नहीं, अन्य अनेक लोगों के लिए भी इस तरह की बातें करना बहुत आसान है कि ऐसा या वैसा किया जाना चाहिए था।

यदि आलोचना के लिए आलोचना का सहारा ले रहे लोग भविष्य के बारे में अनुमान लगा सकने में इतने ही माहिर हैं तो कम से कम अब बता दें कि आगे क्या कदम उठाए जाने चाहिए? पता नहीं यह बुनियादी बात समझने से क्यों इन्कार किया जा रहा है कि कोरोना वायरस के संक्रमण ने विश्व के समक्ष जो कठिन हालात पैदा किए उनसे निपटने का अनुभव किसी के पास नहीं था? चूंकि संकट बहुत बड़ा था और उसके समाधान का कोई ठोस उपाय उपलब्ध नहीं था इसलिए दुनिया भर की सरकारों ने अपनी समझ एवं सामथ्र्य के हिसाब से फैसले लिए और समय-समय पर उनमें फेरबदल भी किए। यही भारत सरकार ने किया।

यह विचित्र है कि जो अब केंद्र सरकार के फैसलों पर मीन-मेख निकाल रहे हैं उनमें वे भी हैं जिन्होंने लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने में तत्परता दिखाई। इनमें कांग्रेस शासित राज्य सरकारें भी शामिल हैं। आखिर राहुल गांधी ने उन्हें तब क्यों नहीं रोका? उन्होंने तभी अपनी राज्य सरकारों से ऐसा कुछ क्यों नहीं कहा कि लॉकडाउन बढ़ाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है? राहुल गांधी किस तरह गैर जरूरी बयानबाजी का सहारा ले रहे हैं, इसका पता उनके इस अजीबोगरीब कथन से चलता है कि शायद द्वितीय विश्व युद्ध में भी लॉकडाउन नहीं लगाया गया था। क्या महामारी और युद्धकालीन हालात की तुलना करने का कोई तुक बनता है?

दरअसल समस्या यही है कि सरकार की आलोचना-निंदा करते समय न तो कोई तुक की बात की जा रही और न ही सार्थक सुझाव दिया जा रहा है। राजीव बजाज की मानें तो भारत को स्वीडन के रास्ते पर चलना चाहिए था। बेहतर होता कि वह इससे परिचित होते कि स्वीडन और भारत के हालात कितने भिन्न हैं और वहां भी अब इस पर मंथन हो रहा है कि क्या लॉकडाउन लागू न करके गलती की गई? नि:संदेह लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है, लेकिन ऐसी बातों से कुछ हासिल नहीं हो सकता जिसमें कोई तत्व न हो।

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