ममता सरकार को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी अड़ंगा लगाने की है आदत

राष्ट्रीय महत्व के जरूरी कामों में इस तरह की अड़ंगेबाजी संवैधानिक तौर-तरीकों का अनादर ही नहीं संघीय ढांचे को सीधे तौर पर दी जाने वाली चुनौती है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 17 Jan 2020 12:36 AM (IST) Updated:Fri, 17 Jan 2020 12:43 AM (IST)
ममता सरकार को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी अड़ंगा लगाने की है आदत
ममता सरकार को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी अड़ंगा लगाने की है आदत

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार की ओर से जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर और जनगणना पर बुलाई गई बैठक का बहिष्कार करने की घोषणा करके अपनी क्षुद्रता भरी राजनीति पर नए सिरे से मुहर लगाने का ही काम किया है। नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर के बाद शायद अब उन्होंने जनगणना में भी कोई खोट निकाल लिया है।

राष्ट्रीय महत्व के जरूरी कामों में इस तरह की अड़ंगेबाजी संवैधानिक तौर-तरीकों का अनादर ही नहीं, संघीय ढांचे को सीधे तौर पर दी जाने वाली चुनौती है। इससे तो एक किस्म की संवैधानिक अराजकता ही पैदा होगी। किसी राज्य सरकार से ऐसे अराजक व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन शायद ममता सरकार को इसकी कहीं कोई परवाह नहीं। उसे राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी अड़ंगा लगाने की आदत है।

यदि बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी जल बंटवारे को लेकर कोई समझौता नहीं हो पा रहा है तो इसका कारण ममता की अड़ंगेबाजी ही है। वह केंद्र सरकार के प्रति अंध विरोध से इतना अधिक ग्रस्त हैं कि कई जनकल्याणकारी योजनाओं से भी बंगाल को बाहर किए हुए हैं। इनमें पिछड़े जिलों को विकसित करने की योजना के साथ-साथ किसान सम्मान निधि और आयुष्मान योजना भी शामिल है।

ममता यह समझने को तैयार नहीं कि उनकी जिद राज्य के लोगों का ही अहित कर रही है। यदि यह जनविरोधी राजनीति नहीं तो और क्या है? आखिर बंगाल के निर्धन किसानों और अन्य गरीबों को केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रखने का क्या मतलब? मुश्किल यह है कि लोगों को बहकाकर अपनी सस्ती राजनीति चमकाने के फेर में संवैधानिक तौर-तरीकों का उपहास उड़ाने वाले और भी मुख्यमंत्री हैं।

बंगाल की तरह केरल सरकार ने भी एनपीआर की प्रक्रिया रोकने की घोषणा की है। वह नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुकी है और वह भी तब जब नागरिकता के मामले में राज्यों की कहीं कोई भूमिका ही नहीं। यदि केंद्र सरकार की किसी पहल से कोई राज्य सरकार संतुष्ट नहीं तो उसे अपनी आपत्ति दर्ज कराने का अधिकार है, लेकिन इसका तो कोई मतलब ही नहीं कि वह झूठ और छल का सहारा लेकर केंद्रीय कानूनों का विरोध करे।

आखिर जब एनपीआर तैयार करने का काम पहले भी हो चुका है और उसका मकसद केवल आम जनता की आर्थिक स्थिति जानकर यथोचित नीतियां और कार्यक्रम बनाना है तो फिर उसके विरोध का क्या मतलब? यह तो संवैधानिक दायित्वों के खिलाफ की जाने वाली बगावत है। बंगाल और केरल की सरकारों का आचरण भारतीय राजनीति के चेहरे को विकृत करने वाला ही नहीं, संघीय ढांचे का उपहास उड़ाने वाला भी है।

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