बढ़ता तापमान, कुदरत के इन संकेतों को समझने की जरूरत

मौसम वैज्ञानिक अप्रैल में जबरदस्त गर्मी की आशंका जता रहे हैं। कुदरत के इन सकेंतों को समझ कर आगे की सुध ली जानी चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 04 Apr 2018 09:57 AM (IST) Updated:Wed, 04 Apr 2018 10:58 AM (IST)
बढ़ता तापमान, कुदरत के इन संकेतों को समझने की जरूरत
बढ़ता तापमान, कुदरत के इन संकेतों को समझने की जरूरत

मार्च से ही कुलांचे भर रहा पारा आने वाले वक्त में और गुल खिलाएगा। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार अप्रैल में गर्मी रिकार्ड स्तर पर पहुंच सकती है। कुदरत के इन संकेतों को समझने की जरूरत है। जल्दी गर्मी के पीछे वैज्ञानिक कम बारिश को जिम्मेदार मान रहे हैं। मौसम विज्ञान केंद्र की मानें तो जनवरी और फरवरी में बारिश औसत से 67 फीसद कम रही है। यही वजह है कि मार्च से ही पारा चढ़ना शुरू हो गया है। देखा जाए तो सामान्य तौर पर उत्तराखंड में प्रति वर्ष 1580.8 मिमी बारिश होती है। इसमें अकेले मानसून सीजन के चार महीनों यानी जून से लेकर सिंतबर तक की वर्षा का योगदान 1229.2 मिमी है। अब यह मात्र लगातार कम होने लगी है। नतीजा अकेले गढ़वाल क्षेत्र में कभी ़वाल क्षेत्र में ही 3200 खाल थीं, जो विलुप्त होने की कगार पर हैं। बीती एक सदी पर नजर दौड़ाएं तो उत्तराखंड क्षेत्र में ही करीब 300 नदियां सूख चुकी हैं। ये वे नदियां हैं, जिनका आधार ग्लेश्यिर नहीं, बल्कि जलस्रोत थे। ऋषिकेश की चंद्रभागा, रुड़की की सोलानी, नैनीताल की कोकड़झाला, पौड़ी की ¨हवल जैसी नदियां सूखने की कगार पर पहुंच चुकी हैं। यही नहीं, गढ़वाल और कुमाऊं दोनों ही जगह तमाम नदियों के जल स्तर में चिंताजनक ढंग से गिरावट आई है।

दरअसल, विकास की अंधी दौड़ में इन जीवनदायिनी नदियों की अनदेखी कर दी गई। अनियोजित विकास के कारण नदियों को जीवन देने वाले स्रोत ही खत्म हो गए तो कहीं कैचमेंट एरिया तबाह कर दिए गए। बावजूद इसके टिहरी जिले में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की पहल उम्मीदें जगाने वाली है। इस पहल के तहत जिले के 1862 गांवों में से 518 गांव जल संरक्षण में अहम भूमिका निभाएंगे। इन गांवों में तैनात करीब छह हजार कृषि जल मित्र प्राकृतिक जल स्रोतों को जीवनदान देने के लिए कार्य करेंगे। तीन दशक पहले के वक्त को देखा जाए तो पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का ऐसा संकट नहीं था, जल संरक्षण उत्तराखंड के ग्रामीणों की परंपरा का एक अहम भाग रहा है। यही वजह थी कि साल में एक बार सामूहिक तौर ग्रामीण स्रोत की सफाई करते थे। जाहिर है चाल-खाल और ताल भरे रहते थे तो आसपास की जमीन भी नम रहती थी। वक्त आ गया है फाइलों में चल रही योजनाओं को धरातल पर उतार जाए। तभी मौसम के तेवरों का सामना भी किया जा सकेगा।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ] 

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