कश्मीर में बढ़ता जोखिम

यह ठीक नहीं कि आतंकियों की घेरेबंदी के वक्त सेना और सुरक्षा बलों को उपद्रवी भीड़ से निपटने में कहीं अधिक जोखिम का सामना करना पड़े।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 10 Mar 2017 12:40 AM (IST) Updated:Fri, 10 Mar 2017 03:54 AM (IST)
कश्मीर में बढ़ता जोखिम
कश्मीर में बढ़ता जोखिम

कश्मीर में आए दिन आतंकियों से मुठभेड़ और उस दौरान सुरक्षा बलों और सेना के काम में खलल डालने की कोशिश अब नई बात नहीं, लेकिन यह चिंताजनक है कि उपद्रवी तत्व कहीं अधिक दुस्साहसी होते जा रहे हैं। हालांकि वे इस दुस्साहस की कीमत भी चुका रहे हैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि आतंकियों की घेरेबंदी के वक्त सेना और सुरक्षा बलों को उपद्रवी भीड़ से निपटने में कहीं अधिक जोखिम का सामना करना पड़े। यह जोखिम किस तरह बढ़ता जा रहा है, इसका पता इससे चलता है कि बीते दिन पुलवामा में दो आतंकियों के मारे जाने के बाद भड़की हिंसा में आठ जवान जख्मी हो गए। जब पथराव और आगजनी से बचने के लिए सुरक्षा बलों ने जवाबी कार्रवाई की तो एक युवक गोली लगने से मारा गया और दूसरा आंसू गैस से दम घुटने से। इन मौतों को लेकर नए सिरे से उपद्रव किया जाए तो हैरत नहीं, क्योंकि यह साफ दिख रहा है कि घाटी में हिंसा के दुष्चक्र को जारी रखने की कोशिश हो रही है। इसके तहत नसीहत-हिदायत सेना एवं सुरक्षा बलों को दी जाती है और पत्थरबाजी पर आमादा भीड़ को अहिंसक आंदोलन का हिस्सा बताया जाता है। पहले यह काम पाकिस्तान परस्त तत्व ही करते थे, लेकिन अब घाटी के राजनेता भी करने लगे हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कश्मीर के विपक्षी दल पत्थरबाजों को उकसाने का काम कर रहे हैं। पत्थरबाजों के खुले-छिपे संरक्षकों के खिलाफ कड़ाई बरतने की जरूरत है, भले ही वे राजनेता ही क्यों न हों। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो कश्मीर के हालात संभालना और मुश्किल होगा।
यह समझने की जरूरत है कि कश्मीर में सुरक्षा बलों के जवानों और साथ ही उनके वाहनों एवं ठिकानों पर होने वाली पत्थरबाजी ने अब एक किस्म के पागलपन का रूप ले लिया है। इस पागलपन के बीच भी सुरक्षाबल किस तरह संयम और जिम्मेदारी दिखाते हैं, इसका उदाहरण पुलवामा में ही तब देखने को मिला जब आतंकियों से हथियार डालने के लिए पहले मस्जिदों से ऐलान कराया गया, फिर उनके परिजनों से बात कराई गई। आतंकी न केवल अड़े रहे, बल्कि गोलियां भी दागते रहे। जब वे सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए तो भीड़ हमेशा की तरह सुनियोजित तरीके से भड़क गई और उत्पात मचाने लगी। ऐसी उत्पाती भीड़ से निपटने के लिए कुछ नया करना और सोचना होगा, क्योंकि पहले आतंकियों से मुठभेड़ के वक्त देश विरोधी नारेबाजी ही होती थी, फिर पत्थरबाजी भी होने लगी और अब सुरक्षा बलों के घेरे में आए आतंकियों को निकल भागने का मौका देने की कोशिश भी होने लगी है। बीते कुछ दिनों में ऐसी कोशिश के चलते कुछ आतंकी बच निकलने में कामयाब भी हुए हैं। कई ऐसे भी मामले सामने आए हैं जब उपद्रवी भीड़ के चलते सुरक्षा बलों को आतंकियों की तलाशी का अभियान रद करना पड़ा। हालांकि सेनाध्यक्ष ने आतंकियों की तलाशी या फिर उनसे मुठभेड़ के वक्त पत्थरबाजी करने और जवानों का रास्ता रोकने वाले तत्वों को चेताया था, लेकिन उसका असर पड़ता नहीं दिख रहा है। यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि ऐसे प्रयास किए जाएं जिससे घाटी में सेना एवं सुरक्षा बलों का इकबाल कायम रहे।

[ मुख्य संपादकीय ]

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