जरूरी हैं कृषि सुधार, किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर आगे बढ़े सरकार

कृषि कानूनों को वापस लेने का यह अर्थ नहीं हो सकता और न ही होना चाहिए कि खेती एवं किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है।

By Neel RajputEdited By: Publish:Sun, 26 Dec 2021 09:10 AM (IST) Updated:Sun, 26 Dec 2021 09:10 AM (IST)
जरूरी हैं कृषि सुधार, किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर आगे बढ़े सरकार
दुर्भाग्य यह रहा कि कुछ किसान संगठनों ने भी किसानों को गुमराह करने का काम किया

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की ओर से यह ठीक ही कहा गया कि कुछ लोगों की आपत्ति के कारण जो कृषि कानून निरस्त हो गए, वे आजादी के बाद बड़े सुधार थे। उनके इस कथन की आलोचना का कोई अर्थ नहीं कि हम एक कदम पीछे हटे हैं, लेकिन फिर आगे बढ़ेंगे। दुर्भाग्य से कुछ लोग उनके इस कथन की व्याख्या इस रूप में कर रहे हैं कि कृषि मंत्री तीनों कृषि कानून फिर लाने की बात कर रहे हैं।

कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने तो उनके वक्तव्य को किसान विरोधी षड्यंत्र करार देते हुए यह भी कह दिया कि चुनाव बाद किसानों पर फिर वार होगा। इसे देखते हुए यह आवश्यक है कि सरकार कृषि सुधारों पर नए सिरे से कदम बढ़ाते समय इसका ध्यान रखे कि इस मामले में फिर से दुष्प्रचार की राजनीति अपनी जड़ें न जमाने पाए। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को बरगलाने के लिए दुष्प्रचार का जमकर सहारा लिया गया। इस तरह का झूठ बार-बार फैलाया गया कि कृषि कानूनों के जरिये सरकार किसानों की जमीनें छीनने का काम करेगी। यह काम विपक्षी दलों और खासकर उस कांग्रेस की ओर से भी किया गया, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव के अवसर पर जारी अपने घोषणापत्र में वैसे ही कृषि कानून बनाने का वादा किया था, जैसे मोदी सरकार लेकर आई थी। दुर्भाग्य यह रहा कि कुछ किसान संगठनों ने भी किसानों को गुमराह करने का काम किया।

कृषि कानूनों को वापस लेने का यह अर्थ नहीं हो सकता और न ही होना चाहिए कि खेती एवं किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कृषि कानून वापस होने से वे तमाम किसान निराश हैं, जिन्हें कुछ हासिल होता हुआ दिख रहा था। तथ्य यह भी है कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन मोटे तौर पर ढाई राज्यों अर्थात पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित था। इस पर हैरानी नहीं कि इस आंदोलन में शामिल पंजाब के कई किसान संगठन खुद को राजनीतिक दल में तब्दील करने में लगे हुए हैं। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट ही है कि राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए किसानों को मोहरा बनाया गया। अब आवश्यक केवल यह नहीं कि कृषि कानून वापस होने के बाद भी सरकार कृषि सुधारों की जरूरत को रेखांकित करे, बल्कि यह भी है कि किसानों, किसान संगठनों, कृषि विशेषज्ञों एवं राजनीतिक दलों से व्यापक विचार-विमर्श करके ही इस दिशा में आगे बढ़े।

chat bot
आपका साथी