निर्वाचन आयोग और अधिक अधिकारों से लैस हो, ताकि चुनाव प्रचार के नाम पर दुष्प्रचार न हो सके

चुनाव प्रचार के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादा के खुले उल्लंघन को देखते हुए निर्वाचन आयोग के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह सख्ती का परिचय दे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 16 Apr 2019 10:21 AM (IST) Updated:Tue, 16 Apr 2019 10:21 AM (IST)
निर्वाचन आयोग और अधिक अधिकारों से लैस हो, ताकि चुनाव प्रचार के नाम पर दुष्प्रचार न हो सके
निर्वाचन आयोग और अधिक अधिकारों से लैस हो, ताकि चुनाव प्रचार के नाम पर दुष्प्रचार न हो सके

चुनाव प्रचार के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादा के खुले उल्लंघन को देखते हुए निर्वाचन आयोग के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह सख्ती का परिचय दे। मुसलमानों के वोट बंटने न देने की खुली अपील करने वाली मायावती और उन्हें जवाब देने की कोशिश में अली और बजरंगबली की बात कहने वाले योगी आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार पर क्रमश: दो और तीन दिन की पाबंदी का निर्वाचन आयोग का फैसला उन अन्य नेताओं के लिए सबक बनना चाहिए जो बेलगाम हुए जा रहे हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जहां माया, योगी और मेनका गांधी जैसे नेता केवल आदर्श आचार संहिता का ही उल्लंघन करते पाए गए वहीं कुछ इस संहिता के साथ ही सामान्य शिष्टाचार और लोक-लाज को ताक पर रखकर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ऐसी अभद्र बातें करते पाए गए जिनका उल्लेख भी नहीं किया जा सकता। रामपुर से सपा- बसपा गठबंधन के प्रत्याशी आजम खान ने भाजपा प्रत्याशी जयाप्रदा पर जैसी बेहूदा टिप्पणी की वह समस्त महिलाओं का अपमान करने और साथ ही सभ्य समाज को शर्मिंदा करने वाली है। इसमें संदेह है कि चुनाव आयोग ने आजम खान को तीन दिन के लिए चुनाव प्रचार से रोकने का जो फैसला किया वह पर्याप्त है और उससे वह कोई सही सबक सीखने को तैयार होंगे। आखिर यह वही आजम खान हैं जिन पर पिछले चुनाव में पाबंदी तो लगाई ही गई थी, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उनकी उस अभद्र टिप्पणी के लिए माफी मांगने को भी बाध्य किया था जो उन्होंने बुलंदशहर सामूहिक दुष्कर्म कांड को लेकर की थी।

आजम खान बेहूदा टिप्पणियों के लिए कुख्यात हैं, लेकिन वह अनापशनाप बोलने वाले इकलौते नेता नहीं। उनके जैसे नेताओं की कतार लंबी ही होती जा रही है और इसका कारण यह है कि पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व उन पर कायदे से लगाम नहीं लगाता। उलटे कई बार वह अपने बेलगाम नेताओं का बचाव करने की ही कोशिश करता है। सपा नेता अखिलेश यादव ने मायावती के खिलाफ निर्वाचन आयोग की कार्रवाई पर सवाल खड़ा करते हुए प्रधानमंत्री के बालाकोट हमले से जुड़े बयान का उल्लेख कर जवाबी सवाल तो उछाल दिया, लेकिन आजम का बचाव करना ही बेहतर समझा। यह समझ आता है कि चुनावी माहौल में नेता एक-दूसरे के खिलाफ कठोर बातें कहने में संकोच नहीं करते, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे भाषा की मर्यादा त्यागकर गाली-गलौज पर उतर आएं। विडंबना यह है कि वे केवल यही नहीं करते, बल्कि छल और झूठ का भी सहारा लेते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल सौदे के बहाने यही कर रहे हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का हवाला देकर प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसी बातें कह डालीं जो कभी कही ही नहीं गईं। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को अवमानना नोटिस जारी किया हो, लेकिन हैरानी नहीं कि उनके वकील उनके झूठ का बचाव करते हुए दिखें। चूंकि राजनीतिक विमर्श का स्तर हद से ज्यादा खराब होता जा रहा है इसलिए बेहतर होगा कि निर्वाचन आयोग और अधिक अधिकारों से लैस हो, ताकि चुनाव प्रचार के नाम पर न तो दुष्प्रचार हो सके और न ही लोकतांत्रिक मर्यादा का हनन।

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