निर्भया के दोषियों को फांसी देने की डेट तय, लेकिन संशय बरकरार, खुला है कानूनी विकल्प का इस्तेमाल

सब इससे भली तरह अवगत हैं कि न्याय में देरी न्याय से इन्कार है फिर भी वैसे प्रयास नहीं हो रहे हैं जिससे न्याय में देरी न होने पाए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 08 Jan 2020 12:43 AM (IST) Updated:Wed, 08 Jan 2020 12:43 AM (IST)
निर्भया के दोषियों को फांसी देने की डेट तय, लेकिन संशय बरकरार, खुला है कानूनी विकल्प का इस्तेमाल
निर्भया के दोषियों को फांसी देने की डेट तय, लेकिन संशय बरकरार, खुला है कानूनी विकल्प का इस्तेमाल

आखिरकार सात साल बाद देश को विचलित करने वाले निर्भया कांड के चार गुनहगारों के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत ने डेथ वारंट जारी कर दिया। इसके तहत इन चारों को फांसी की सजा 22 जनवरी को दी जाएगी, लेकिन इसे लेकर सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता और इसका कारण यह है कि दोषियों के वकील यह दावा कर रहे हैैं कि उनके पास अभी कुछ और कानूनी विकल्प हैैं। नि:संदेह जघन्य अपराध के दोषियों को भी उपलब्ध कानूनी विकल्प इस्तेमाल करने का अधिकार है, लेकिन सबको पता है कि इन विकल्पों की आड़ में किस तरह तारीख पर तारीख का खेल खेला जाता है।

यह केवल हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि शर्मनाक है कि 2012 के जिस मामले ने देश को थर्रा दिया था उसके दोषियों की सजा पर अमल अब तक नहीं हो सका है और वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 2017 में ही सुना दिया था। इसके बाद जो कुछ हुआ वह न्याय प्रक्रिया की कच्छप गति को ही बयान करता रहा। न्याय प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार से न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पदों पर बैठे लोग अनजान नहीं, लेकिन दुर्भाग्य से उन परिस्थितियों का निराकरण होता नहीं दिखता जिनके चलते समय पर न्याय पाना कठिन है।

लगता है किसी को इस पर लज्जा नहीं आई कि निर्भया के मां-बाप को न्याय के लिए किस तरह दर-दर भटकना पड़ रहा? दुर्भाग्य से यह एकलौता ऐसा मामला नहीं जिसमें न्याय पाना पहाड़ जैसी समस्या बना हो। यह तो गनीमत है कि इस मामले में सात साल बाद न्याय होता दिख रहा है। अधिकांश मामलों में तो दशकों बाद भी अंतिम स्तर पर न्याय नहीं हो पाता। इनमें तमाम मामले संगीन किस्म के होते हैैं। जब संगीन मामलों में भी जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण देरी होती है तब केवल न्याय व्यवस्था का उपहास ही नहीं उड़ता, बल्कि अपराधी तत्वों को बल भी मिलता है।

यह विडंबना ही है कि सब इससे भली तरह अवगत हैं कि न्याय में देरी न्याय से इन्कार है, फिर भी वैसे प्रयास नहीं हो रहे हैं जिससे न्याय में देरी न होने पाए। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता कानून के शासन को लेकर घिसे-पिटे उपदेश देने के बजाय यह देखें कि न्याय की शिथिल गति भारतीय लोकतंत्र को दुर्गति की ओर ले जा रही है। इसी के साथ समाज को भी यह समझना होगा कि दुष्कर्मी तत्वों को केवल कठोर सजा से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। दुष्कर्म सरीखे अपराध कहीं न कहीं यह भी बताते हैैं कि समाज बेहतर नागरिकों का निर्माण करने के अपने दायित्व का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर पा रहा है।

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