छीजती मर्यादा

राज्य में एक तरफ चुनावी सरगर्मी की वजह से नेताओं की जुबान लहक रही है तो दूसरी ओर कुछ लोग सामाजिक ताने-बाने को उलझा देने की फिराक में हैं। इसका ताजा उदाहरण है पटना सिटी स्थित मनोज कमलिया स्टेडियम में बापू की प्रतिमा तोड़ा जाना।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 07 Oct 2015 02:22 AM (IST) Updated:Wed, 07 Oct 2015 02:26 AM (IST)
छीजती मर्यादा

राज्य में एक तरफ चुनावी सरगर्मी की वजह से नेताओं की जुबान लहक रही है तो दूसरी ओर कुछ लोग सामाजिक ताने-बाने को उलझा देने की फिराक में हैं। इसका ताजा उदाहरण है पटना सिटी स्थित मनोज कमलिया स्टेडियम में बापू की प्रतिमा तोड़ा जाना। गांधी जयंती के ठीक दो दिन बाद इस प्रतिमा को खंडित किया गया। सत्य, अङ्क्षहसा, करुणा के प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी की प्रतिमा के साथ ङ्क्षहसा से ऐसे लोगों के उद्देश्य को समझा जा सकता है। जाहिर, है ये असामाजिक तत्व समाज में विद्वेष फैलाना चाहते हैं। ऐसे तत्व अन्य जगहों पर भी ऐसी घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। यह असामाजिक तत्वों की बहादुरी नहीं, बल्कि कायरता ही कही जाएगी जिसने रात के अंधेरे में प्रतिमा पर हथौड़े से वार किया। जैसा कि केयरटेकर ने बताया है- रविवार की देर शाम तक प्रतिमा सही-सलामत थी। सोमवार की सुबह टूटी पाई गई। प्रतिमा की सुरक्षा में लगी जाली को भी तोडऩे का प्रयास किया गया। यह प्रतिमा पिछले छह दशक से लोगों के आस्था का केंद्र थी। इसे प्रख्यात कलाकार दामोदर प्रसाद अम्बष्ठ ने गढ़ा था। इस घटना पर आमजन का गुस्सा जायज है, लेकिन ऐसे हालात में सतर्कता जरूरी है, ताकि सौहार्द का वातावरण कायम रह सके। माहौल को शांतिपूर्ण बनाए रखने में पुलिस की सक्रियता भी जरूरी है।

जहां तक चुनावी माहौल का सवाल है, विरोधी एक-दूसरे को किसी भी संज्ञा से नवाजने में कोताही नहीं कर रहे। नरभक्षी, नारीभक्षी, धृतराष्ट्र, शकुनी, दुर्योधन, अहंकारी, जोकर जैसी उपमा देकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास जारी है। ऐसे माहौल में मुख्य मुद्दे गौण हुए जा रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, अशिक्षा जैसे मुद्दे चुनावी फिजा में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं। हालात ये हैं कि चाय की दुकान हो या चौक-चौराहे आम जनता नेताओं को ऐसे बयान पर चुटकी ले रही है। लंबी चर्चा तक छिड़ जा रही है। कुछ गंभीर मतदाता यह कहने से नहीं चूक रहे कि नेताओं ने विकास के नाम पर चुनावी यात्रा शुरू की थी। अब विकास की बातें संक्षेप में हो रही हैं। इनकी जगह दूसरी अनर्गल बातों ने ले ली है, जिसका आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं। उसकी अपनी जरूरतें हैं। वह यह जानना चाहता है कि महंगाई पर लगाम के लिए किस पार्टी के पास कौन सा नुस्खा है। राज्य में रोजगार के लिए किस दल के पास कौन सी स्कीम है। पलायन रुकेगा या नहीं, ऊंची शिक्षा के लिए राज्य में क्या व्यवस्था होगी? आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ने चुनाव को मुख्य मुद्दे से भटका दिया। हालांकि ऐसे बयानों को लेकर चुनाव आयोग गंभीर हुआ है। इन नेताओं को संयमित भाषा के उपयोग का सुझाव दिया गया है। ऐसे बयानों पर अंकुश के लिए कानून बने हैं, लेकिन इसकी परवाह किए बिना नेता अपने रंग में हैं। नेताओं को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। आवेश में आकर दिए गए बयान उनकी राजनीतिक छवि को भी धकिया रहे हैं। गोमांस पर बयान देने के बाद लालू प्रसाद को विरोधियों ने घेर रखा है। उन्हें तरह-तरह की सफाई देकर अपनी बातों का मायने समझाना पड़ रहा है। निश्चित तौर पर ऐसे बयान से जनता को कोई लेना-देना नहीं है। जनता समझती है कि चुनाव जीतने के लिए नेता हर हथकंडे अपनाते हैं, फिर भी बयानों का असर माहौल पर तो पड़ता ही है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि नेताओं की भाषा मर्यादित होगी और आमजन उनके संबोधन में अपने काम की बातें ढूंढते हुए मतदान का मन बनाएंगे।

[स्थानीय संपादकीय: बिहार]

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