विदेश नीति जैसे मसले पर भी विपक्ष की संकीर्ण राजनीति

विडंबना यह है कि अब हमारे राजनीतिक दल विदेश नीति जैसे मसले पर भी संकीर्ण राजनीति करने से बाज नहीं आते।

By Arti YadavEdited By: Publish:Sun, 27 May 2018 12:33 PM (IST) Updated:Sun, 27 May 2018 12:52 PM (IST)
विदेश नीति जैसे मसले पर भी विपक्ष की संकीर्ण राजनीति
विदेश नीति जैसे मसले पर भी विपक्ष की संकीर्ण राजनीति

इस पर हैरत नहीं कि जब सत्तापक्ष के नेताओं की ओर से मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाई जा रही हैं तब विपक्ष की ओर से इस पर जोर दिया जा रहा है कि यह सरकार हर मोर्चे पर नाकाम रही है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की मानें तो मोदी शासन के चार साल बाद देश बेहाल है। उसने इस मौके पर विश्वासघात दिवस का आयोजन कर सरकार के दावों को झूठा बताने की भी कोशिश की। नि:संदेह कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को ऐसा करने का अधिकार है, लेकिन जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी सरकार सभी मोर्चो पर सफल रही है और उसने अपने सारे वादे पूरे कर दिए वैसे ही यह बात भी गले नहीं उतर सकता कि उसने कुछ किया ही नहीं और उसके कारण देश समस्याओं की गर्त में चला गया है। चूंकि मोदी सरकार के कार्यकाल के चार साल पूरे होने के साथ ही आगामी आम चुनाव सत्तापक्ष और विपक्ष की प्राथमिकता में आ गए हैं इसलिए आने वाले समय में दोनों पक्षों का चुनावी मूड-माहौल में नजर आना स्वाभाविक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं होना चाहिए कि उनके तेवर राजनीतिक माहौल में कटुता घोलने का काम करें। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा होता ही दिख रहा है। यदि चुनावी वर्ष में राजनीतिक दलों की एक-दूसरे के प्रति आक्रामकता बढ़ती है जिसके कि आसार दिख रहे हैं तो फिर संसद में वैसी ही परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं जैसी पिछले सत्र में देखने को मिली थीं और जिसके चलते वहां कोई उल्लेखनीय कामकाज नहीं हो सका था। देश के चुनावी वर्ष में प्रवेश कर जाने का यह अर्थ नहीं कि संसद राजनीतिक अखाड़े में तब्दील हो जाए और वहां जरूरी काम भी न हो सकें। बेहतर हो कि राजनीतिक दल राजनीति करने के अपने तौर-तरीके बदलने पर गंभीरता से ध्यान दें। इसलिए और भी, क्योंकि वे अपने आचार-व्यवहार से जिस आम जनता को प्रभावित और आकर्षित करने की कोशिश में दिन-रात एक करते हैं वह कहीं अधिक परिपक्व हो चुकी है।

पक्ष-विपक्ष को कम से कम राष्ट्र हित के अहम मसलों पर तो समझ-बूझ कायम करनी ही चाहिए। आखिर जब दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में ऐसा हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं हो सकता? विडंबना यह है कि अब हमारे राजनीतिक दल विदेश नीति जैसे मसले पर भी संकीर्ण राजनीति करने से बाज नहीं आते। हालांकि राजनीतिक दल इससे अच्छी तरह अवगत हैं कि कोई भी सरकार हो वह चार-पांच वर्ष में इतने बड़े देश की सभी समस्याओं को नहीं सुलझा सकती, लेकिन जहां सत्तापक्ष अपने वादों से ऐसी ही प्रतीत कराता है, वहीं विपक्ष हर मसले को न केवल तूल देने की ताक में रहता है, बल्कि लोगों को बरगलाने की भी कोशिश करता है। क्या सत्तापक्ष और विपक्ष ऐसे कुछ मुद्दों का चयन नहीं कर सकते जिन पर तू तू-मैं मै करने के बजाय आम सहमति से आगे बढ़ा जाए? यह ठीक नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था आम सहमति की जिस राजनीति की मांग करती है उसका अभाव बढ़ता ही जा रहा है। यह अभाव तो देश की समस्याओं को बढ़ाने का ही काम करेगा।

[मुख्य संपादकीय]

chat bot
आपका साथी