Analysis : शेष देश संग बंटे दिल्ली का आभामंडल
वैसे छह ऋतुएं मानी जाती हैं-वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर, लेकिन अब इनसे काम नहीं पूरा होता। देश की राजधानी दिल्ली में तो बिल्कुल नहीं।
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[गोपालकृष्ण गांधी]। वैसे छह ऋतुएं मानी जाती हैं-वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर, लेकिन अब इनसे काम नहीं पूरा होता। देश की राजधानी दिल्ली में तो बिल्कुल नहीं। अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर के महीने में हेमंत और शिशिर के साथ-साथ एक और ऋतु भी चलती है और उसका नामकरण होना चाहिए। क्या नाम दिया जाए उसको? मेरी समझ में उसका नाम रखा जाना चाहिए-प्रदूष! प्रदूषण का छोटा रूप प्रदूष। अगर कालिदास आज हमारे बीच होते और ऋतुसंहार लिख रहे होते तो अवश्य इस सातवीं ऋतु पर एक पूरा सर्ग रचते अपनी चमत्कारी संस्कृत में। वह रूपकों का बखूबी इस्तेमाल करते थे। बादलों को उन्होंने हाथियों की तरह दर्शाया। वह इस काली- पीली धुंध के आवरण को किस तरह दर्शाते? वह संभवत: इसे किसी दैत्य की उच्छवास, किसी राक्षस की डकार कहते।
प्राचीन समय में उत्तर भारत में साल बीतते- बीतते घर की अलमारियों या संदूकों में रखे ऊन के कपड़े बाहर निकलने लगते या नए खरीदे जाने लगते थे। यह अक्टूबर में शुरू हो जाता था। अतीत में उस महीने में खींचे गए छायाचित्रों में लोग स्वेटर पहने या शॉल ओढ़े नजर आते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। हवाएं अब भी सर्द नहीं हैं। अब यह एक नई कहानी है। गर्मी अभी पूरी तरह से गई नहीं है और सर्दी कायदे से आई नहीं है, लेकिन किसी घुसपैठ की तरह यह नया मौसम आ गया है और जम के बस गया है दिल्ली में- प्रदूष! और निश्चित तौर पर दिल्ली में और उसके आस-पास ऊनी कपड़े नहीं, बल्कि अब कोई और ही चीज बाहर निकल आई है और वह है नोज-गार्ड या ब्रीद-गार्ड! ट्रैफिक पुलिस वाले उसे पहनते हैं। इसी तरह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले अन्य लोग भी बड़ी संख्या में इसे पहन रहे हैं। शहर के बगीचों और पार्कों में टहलने वाले लोग जो पहन रहे हैं उसे मास्क कहते हैं और ज्यादातर स्कूल अपनी नियमित ड्रेस या यूनिफॉर्म में इसे शामिल कर रहे हैं।
दिल्ली के हेमंत, शरद और शिशिर की खूबी अब जाती रही है। प्रदूष ने उन तीनों को देश-निकाला कर छोड़ा है। पता नहीं कैसे, किस तिलस्म से, कुछ फूल और पेड़ इस दम-घोंटू मौसम में भी फल-फूल रहे हैं। ईश्वर की कृपा है, प्रकृति का करिश्मा, पर वैसे मोटे तौर पर अब सर्दी सर्द नहीं रही। क्या हालात बदलेंगे? क्या प्रदूष ऋतु कभी भगा दी जाएगी? मेरी समझ में नहीं! बात बहुत बिगड़ गई है। दिल्ली सरकार, उसके प्रशासन की काबिलियत से आगे बढ़ गई है। दिल्ली के नागरिक अपने तरीकों को बदलने नहीं वाले। न ही कोई राजनीतिज्ञ उनको बदलने को कहेगा, उनका समर्थन कीमती है। तीन-तीन, चार-चार मोटरगाड़ियां मत रखो, दिन-रात एसी मत चलाओ, अगर उनको वह कहे तो वह कल उनके वोट कैसे मांगेगा? दिल्ली के आस-पास धान की पराली को आग लगाने की प्रथा क्या रोकी जा सकती है? हां, निश्चय ही, अगर, अगर...किसानों को कोई कहने की हिम्मत करे कि यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम्हारी फसल जब्त..। कौन कहेगा यह कड़वा सच? लेकिन प्रदूषण ही दिल्ली की इकलौती समस्या नहीं है। एक और समस्या है, कहीं ज्यादा बड़ी। और वह मानव-निर्मित नहीं। उसका नाम है-भूचाल।
भारत को भूकंप-विशेषज्ञों ने पांच जोन में बांटा है। जोन-5 सर्वाधिक भूकंप-संवेदी है। इसमें शामिल है कच्छ, पश्चिमी और मध्य हिमालय तथा पूर्वोत्तर। यहां भयंकर भूकंप आ सकते हैं। दिल्ली इससे एक स्तर कम गंभीर यानी जोन-4 में है। यह तथ्य इसके निवासियों को पता होना चाहिए। क्या उन्हें यह भान भी है कि वे किस भूकंपन-खतरे के साथ रह रहे हैं? जी नहीं, बिल्कुल नहीं। सब अपनी धुन में सवार हैं। अपने ख्वाबों में मगन। जोन-4 में होना दिल्ली को भूकंप के लिहाज से संवेदनशील बनाता है। वैसे ही जैसे मराठवाड़ा में कोयना है जो 1967 में बुरी तरह दहल उठा था और जम्मू-कश्मीर भी, जहां 2005 में जबर्दस्त जलजला आया था। न करे नारायण, खुदा न खास्ता, अगर दिल्ली में उन जलजलों जैसा जलजला आता है तो समझिए...। कोई ऊपर
है?
जब आदमजात का बनाया प्रदूषण हमसे रोका नहीं जाता तो कुदरत के इंतजाम पर क्या हम अपना निजाम लगा सकते हैं? कतई नहीं! तो? क्या हम अपने हाथ बांधकर प्रार्थना करतेरहें कि भूचाल न आए, भगवान! भूचाल न आए! कतई नहीं। कुछ करना चाहिए। वह कुछ क्या है? वह यूं है। शासन, प्रशासन दिल्ली के वासियों को जोन-4 का ज्ञान दे। उन्हें घबराने को नहीं, उनको जागरूक करने, उनको भूचाल के तरीकों से वाकिफ कराना है। फिर, एक निर्भीक योजना से दिल्ली की तंग बस्तियों का बोझ कम करे। यह कहना आसान है, करना मुश्किल। कौन खिसकेगा अपने घरों से, मुहल्लों से, कूचों, कतरों, गलियों से? हां, बात पेचीदा है। पर सोचिए, अगर कल जोन-4 वाला धक्का आता है और यही मुहल्ले, गलियां, कूचे, कतरे तबाह होते हैं तो क्या वहां से कराहती हुई आवाज शासन को, प्रशासन को कोसेगी नहीं, क्यों हमें अंधकार में रखा था? क्यों हमें बताया नहीं था कि हम ऐसे खतरे में हैं? क्या जवाब दे पाएंगे तब शासक, प्रशासक- अगर वे खुद धराशायी न हो गए हों, तो? ईमानदारी कहती है कि हमें दिल्ली की सिफत को गौर से देखना चाहिए।
भारत का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र हमारा गौरव है और हमेशा रहेगा। इसे हमेशा भारत की राजधानी भी रहना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह एक नाजुक, संकटग्रस्त राजधानी हो। दक्षिण अफ्रीका को देखें। इसकी राजधानी प्रिटोरिया है, सियासी राजधानी, लेकिन इसकी संसद केपटाउन में बैठती है यानी इसकी विधायी राजधानी। इसका सुप्रीम कोर्ट ब्लोमफोएंटेन में है यानी न्यायिक राजधानी। जोहानिसबर्ग दक्षिण अफ्रीका की व्यापारिक राजधानी है। दिल्ली की आबादी दो-ढाई करोड़ तक पहुंचने के साथ अब समय आ गया है कि हम इस पर अनिवार्य रूप से विचार करें। क्यों न हमारी संसद किसी और शहर में हो? दक्षिण में क्यों नहीं, आंध्र प्रदेश की नई उभरती राजधानी अमरावती जैसी किसी जगह में? इसी तरह क्यों न देश की सर्वोच्च अदालत किसी और शहर में हो? मसूरी में क्यों नहीं? या जयपुर में? या फिर भारत के केंद्र उज्जैन में? और क्यों नहीं इसके सैकड़ों सरकारी संस्थानों को देश भर के विभिन्न शहरों में प्रतिस्थापित किया जाता, खासकर पूर्वोत्तर में? यदि दिल्ली में स्थित अग्रणी संस्थानों को दूसरी जगहों पर भेज दिया जाता है तो भी राजधानी के रूप में इसकी अहमियत कम नहीं हो जाएगी। यह न सिर्फ भूकंप विज्ञान के लिहाज से, बल्कि लोकतांत्रिक रूप से भी बुद्धिमत्तापूर्ण होगा। इससे हमारे गणतंत्र का संघीय चरित्र भी सुदृढ़ होगा।
संस्कृत में कहा गया है- दीर्घं पश्यत, मा हृस्वं। दिल्ली में प्रदूषण को हराने और जलजले के खतरे को कम करने का एक ही उपाय है कि वह अपने बोझ को कम करे और अपने आभामंडल को बाकी भारत के साथ बांटे। बोझिल और कराहते रहने से बेहतर है कि हल्के और सुरक्षित हो जाएं।
(लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं और वर्तमान
में अध्यापक हैं)