बड़ा सवाल : भारत जैसे लोकतंत्र में शरई अदालतों का क्या काम

इन अदालतों ने कई मामलों में तीन तलाक को जायज ठहराते हुए फैसले दिए हैैं। इसके सुबूत भी मौजूद हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 27 Jul 2018 12:49 AM (IST) Updated:Fri, 27 Jul 2018 01:04 PM (IST)
बड़ा सवाल : भारत जैसे लोकतंत्र में शरई अदालतों का क्या काम
बड़ा सवाल : भारत जैसे लोकतंत्र में शरई अदालतों का क्या काम

[ नाइश हसन ]: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हाल में न केवल यह कहा कि मुसलमान अपने मामले शरई अदालतों में निपटाएं, बल्कि यह भी ऐलान किया कि वह कुछ और ऐसी ही अदालतें खोलेगा। यह ऐलान ऐसे समय किया गया जब निकाह हलाला का मामला चर्चा में है। जब-जब मुसलमान औरतों ने धर्मसत्ता की जड़ों को हिलाने की कोशिश की है तब-तब ऐसी ही कोशिश हुई है। याद करें कि अतीत में जब शाहबानो, इमराना, गुड़िया या फिर शायरा बानो के मामले सामने आए तब शरीयत के हिसाब से चलने या फिर शरई अदालतें गठित करने अथवा उन्हें महत्व देने की पहल हुई। ऐसा जान पड़ता है कि नियंत्रण से बाहर होते गुलामों को फिर से नए हथियारों से साधा जा रहा है ताकि वे भागने न पाएं। देश के कई शहरों में दारूल कजा कही जाने वाली शरई अदालतें स्थापित की जा चुकी हैैं।

इन अदालतों ने कई मामलों में तीन तलाक को जायज ठहराते हुए फैसले दिए हैैं। इसके सुबूत भी मौजूद हैं। खुला (पति से अलग होने का हक) लेने वाली औरतों को उनके सारे अधिकारों से वंचित करने वाले फैसले भी इन अदालतों ने दिए हैं। आज यह कहीं जरूरी है कि औरतों केसवाल को मानवाधिकार के प्रश्न के रूप में खड़ा किया जाए, न कि धर्मों के दायरे में। चूंकि भारत कोई इस्लामिक देश नहीं इसलिए धर्म आधारित अदालतें खड़ी करना अच्छे संकेत नहीं। शरई अदालतें एक शोषणकारी व्यवस्था की पैरोकारी से ज्यादा कुछ नहीं। भारत जैसे लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष देश में जहां अलग-अलग धर्मों, संस्कृतियों के लोग रहते हों, जहां आस्था की आजादी हो और जहां सबके निजी कानून भी हैं वहां जरूरत इसकी है कि इन निजी कानूनों में सुधार लाया जाए और उन्हें लैंगिक समानता के आधार पर बनाया जाए।

मुस्लिम महिलाएं तो यह चाहती हैं कि उन्हें समाज के हवाले न किया जाए, बल्कि उन्हें भारतीय संविधान के तहत गठित अदालतों से ही न्याय मिले। इन अदालतों में संतुष्ट न होने पर ऊंची अदालतों में अपील की गुंजाइश बनी रहती है परंतु दारूल कजा के फैसले की कोई अपील नहीं होती। दारूल कजा के फैसलों से दो-चार महिलाओं की दास्तान यह साफ कर देती है कि कैसे वे उनके हक में नहीं हैैं।

रेशमा नामक एक महिला इसलिए दारूल कजा गई, क्योंकि वह खुला चाहती थी। उसने वहां बताया कि पति बहुत मारपीट करता है इसलिए घरेलू हिंसा का केस कोर्ट में है, लेकिन मैं यहां खुला चाहती हूं। जवाब मिला, पहले आप वह केस उठाइए और हमें उससे संबंधित कागज दीजिए। रेशमा का कहना था कि दारूल कजा का सिस्टम ठीक नहीं। वहां बैठे लोग जैसे-तैसे औरत को मर्द के घर भेज देना चाहते हैं। औरत का पक्ष बिल्कुल भी नहीं समझते। वे कुरान की रोशनी में नहीं, पितृसत्ता की रोशनी में फैसले सुनाते हैं। याद रहे तीन तलाक मसले पर पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से उच्चतम न्यायालय में औरतों को कमअक्ल बताया गया था।

2005-2006 में लखनऊ स्थित महिला संगठन तहरीक ने एक सर्वे कराया था जिसमें मध्य एवं निम्न वर्ग के लगभग 3500 मुस्लिम पुरुष और महिलाओं से बात की गई थी। इसमें एक सवाल यह पूछा गया था कि आप अपने किसी पारिवारिक विवाद के निपटारे के लिए कहां जाना पसंद करेंगे। जवाब में 79 प्रतिशत ने पुलिस और न्यायालय जाने की बात कही थी। जब यह पूछा गया कि क्या आपने दारूल कजा का नाम सुना है तो केवल एक फीसद लोगों ने हां में जवाब दिया था। क्या आप ने पर्सनल लॉ बोर्ड का नाम सुना है? इस सवाल पर हां कहने वाले लोगों का फीसद महज दो था। इस सर्वे में एक सवाल यह भी था कि क्या आप जानते हैं कि मसलक क्या होता है? इस पर सिर्फ पांच फीसद लोगों ने हां कहा था।

जाहिर है कि दारूल कजा यानी शरई अदालतें लोगों की प्राथमिकता मेंं नहीं हैैं। आखिर जब इस तरह की अदालतों की मांग आम जनता ने नहीं की और जब किसी ने सरकार से यह अपील भी नहीं की कि हमारे न्यायिक हक की सुरक्षा के लिए किसी धार्मिक संगठन को जिम्मेदार बनाया जाए तब फिर शरई अदालतों के गठन का क्या मतलब? चूंकि सरकारों और राजनीतिक दलों ने वोट की सियायत साधने के लिए इस प्रकार के संगठनों को फलने-फूलने दिया इसलिए लोकतंत्र में हाशिये की आवाज का दम घुटता रहा। यह किसी से छिपा नहीं कि जमीयतुल उलमा ए हिंद, तबलीगी जमात, आला हजरत, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी तंजीमों ने संसद और न्यायपालिका में भी औरतों के सवाल पर तल्ख जुबानी की है। शरई अदालतों की जरूरत इसलिए नहीं, क्योंकि देश और दुनिया में शरीयत कानून एक से नहीं हैैं। शरीयत में शिया-सुन्नी के कानून भी अलग हैैं। एक लोकतांत्रिक देश में जबरदस्ती इस तरह का माहौल बनाना जिससे आम मुसलमान को भ्रमित किया जा सके, चिंताजनक है। यदि कल र्को ंहदू, ईसाई, पारसी आदि भी अपने निजी कानून होते हुए भी एक अलग न्याय व्यवस्था खड़ी करने लगें तो क्या परिणाम होंगे?

मुस्लिम समाज के नेताओं के पासकौम की चिंता के लिए बहुत से जरूरी सवाल हैैं। उन्हें अपनी सोच और अपने रोल मॉडल यानी आदर्श, दोनों ही बदलने की जरूरत है। जिन अरब देशों की एक-एक बात को वे अकीदत से अपना लेना चाहते है उन्हें अगर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भेड़ें देना बंद कर दें तो वे हज में कुर्बानी भी नहीं दे सकेंगे। अमेरिका, यूरोप उन्हें गाड़ियां और विमान देना बंद कर दें तो वे घरों में कैद होकर रह जाएंगे। दुनिया के बेहतरीन 100 विश्वविद्यालयों में एक भी इस्लामिक दुनिया से नहीं है। जितने रिसर्च पेपर पूरे इस्लामिक देशों में निकलते हैैं उससे ज्यादा रिसर्च पेपर अकेले बोस्टन शहर में निकलते हैैं।

अरब देशों ने बीते पांच सौ सालों में दुनिया को कोई नई दवा, नया तत्व ज्ञान, नया खेल, नया कानून, नया हथियार नहीं दिया। बावजूद इसके हमारी तंजीमें अरब देशों को रोल मॉडल मानकर हर वह गलती फख्र से करती हंै जो इन देशों के लोग कर रहे हैैं। शरई अदालत स्थापित करके हम मुसलमानों को सदियों पीछे ले जाना चाहते हैं। इस्लाहे मुआशरा (समाज सुधार) के बहुत से काम करने बाकी हैैं। उन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। जब कौम को शिक्षित बनाने और उसमें चेतना पैदा करने का काम बाकी है तब कोर्ट-कचहरी खड़ा करने जैसा गैरजरूरी काम कौम को आगे लेकर नहीं जा सकता।

[ लेखिका रिसर्च स्कॉलर और मुस्लिम वीमेंस लीग की महासचिव हैैं ]

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