National Education Policy: नई शिक्षा नीति से हमें औपनिवेशिक मानसिक दासता से मिलेगी मुक्ति

National Education Policy 2020 देश की शिक्षा व्यवस्था को ब्रिटिश शासन की औपनिवेशिक मानसिक गुलामी से मुक्त कर भारत बोध से जोड़ने का यह एक ऐतिहासिक कदम है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 02 Sep 2020 09:07 AM (IST) Updated:Wed, 02 Sep 2020 09:10 AM (IST)
National Education Policy: नई शिक्षा नीति से हमें औपनिवेशिक मानसिक दासता से मिलेगी मुक्ति
National Education Policy: नई शिक्षा नीति से हमें औपनिवेशिक मानसिक दासता से मिलेगी मुक्ति

प्रो. बल्देव भाई शर्मा। National Education Policy 2020 नई शिक्षा नीति को लेकर चल रहा राष्ट्रीय विमर्श वस्तुत: देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में उसके क्रियान्वयन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। किसी भी नई व्यवस्था को जांचने व परखने और उसके गुण-दोष की विवेचना करने के बाद जब उसे अंगीकार किया जाता है, तो निश्चित ही वह सुपरिणामकारी होता है। देश की स्वाधीनता के बाद शिक्षा व्यवस्था की समग्र दृष्टि को लेकर गठित कोठारी आयोग व उसके बाद बनाई गई दूसरी शिक्षा समितियों की रिपोर्ट भी इतनी चर्चा में नहीं रहीं, जितनी यह नई शिक्षा नीति। वास्तव में यह शिक्षा व्यवस्था में 34 साल के सुदीर्घ ठहराव की जड़ता को तोड़ने वाला एक युगांतरकारी प्रयास है। विशेषकर देश की शिक्षा व्यवस्था को ब्रिटिश शासन की औपनिवेशिक मानसिक गुलामी से मुक्त कर, भारत बोध से जोड़ने का यह एक ऐतिहासिक कदम है।

यह विडंबना ही है कि देश की स्वाधीनता के 73 साल बीतने पर भी हम शिक्षा के माध्यम से भारतीय जन-मन के अंत:करण में भारत के प्रति राष्ट्रीय स्वाभिमान व राष्ट्रीयता का बोध सुदृढ़ करने में कहीं न कहीं चूके हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र में अपने महान स्वाधीनता सेनानियों व बलिदानियों को रिवोल्यूशनरी टेररिस्ट के रूप में पाठ्य पुस्तकों में चित्रित किया जाना इसकी छोटी सी बानगी है। यह और ऐसे दूसरे भी कई उपक्रम जिनमें विद्यालय में सरस्वती वंदना को किसी खास मजहबी नजरिये से शिक्षा का सांप्रदायीकरण बताकर उसे बंद करा दिया जाना तक शामिल है। भारत के प्रति एक राष्ट्र के रूप में आत्महीनता का बोध जगाने वाली और एक जन-एक राष्ट्र की अवधारणा, जिसे देश के संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग कह कर परिभाषित किया गया है, को जातिगत, सामाजिक, क्षेत्रीय व भाषायी विभेदों में ढालने वाली बौद्धिक जमात खड़ी करना शायद इस शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा रास आया। कहीं न कहीं यह मैकाले जनित भारत विरोधी शिक्षा नीति का असर माना जाना चाहिए।

नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में भारत बोध को सुदृढ़ करना एक महत्वपूर्ण प्रयास है। शिक्षा समाज व राष्ट्रीय जीवन को मूल्यपरकता के साथ गढ़ने वाला तत्व है। यह केवल रोजगार या डिग्री लेकर अभिजात्य श्रेणी में खड़ा हो जाने का उपक्रम नहीं है। गुरु नानक ने कहा है- विद्या विचारी तां परोपकारी यानी विद्या व्यक्ति को विचारवान और विवेकशील बनाती है, ताकि वह परोपकारी और सामाजिक भावना से युक्त होकर एक अच्छे मनुष्य के रूप में जीवन जी सके। नई शिक्षा नीति इसी भाव बोध के साथ हमारे विद्याíथयों को व्यक्ति से मनुष्य बनाने की प्रक्रिया को मजबूत करने वाली है। इसमें मानव संसाधन विकास मंत्रलय का नाम शिक्षा मंत्रलय किया जाना केवल नाम भर का बदलाव नहीं है।

शिक्षा एक संपूर्ण दृष्टिकोण है जो व्यापक रूप में मानवीय चेतना के विकास को केंद्र में रखता है, जबकि मानव संसाधन विकास की दृष्टि शिक्षा को महज रोजगार केंद्रित बनाए रखने वाली दिखती है। इससे शिक्षा की समग्रता में वैचारिक अनुभूति नहीं होती। शिक्षा के साथ जो उदात्त भाव जुड़ा है, वह विद्याíथयों को अभिप्रेरित करता है। इसीलिए मंत्रलय का नाम बदला गया। हमारे उच्च शिक्षा संस्थान उस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ें नहीं, इस स्तर पर दिशाबोध नई शिक्षा नीति में है। सरकार की गंभीरता इससे भी प्रकट होती है कि पहली बार शिक्षा को बजटीय प्रावधानों में प्राथमिकता पर लाते हुए बजट को छह प्रतिशत किए जाने का बड़ा कदम उठाया गया है।

शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाना भी जरूरी है। छठी कक्षा से ही कौशल विकास व इंटर्नशिप जैसे प्रावधान शामिल किया जाना आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को मजबूत करने वाला है। इसी तरह विद्यार्थी को उसकी रुचि व मेधा के अनुसार उसमें रचनात्मकता व कलात्मक अभिव्यक्तियों का विकास प्रवाह तीव्र करने की दृष्टि से विज्ञान के विद्यार्थियों को इतिहास, संगीत, कला जैसे विषय पढ़ने की छूट दिया जाना, शिक्षा को खंड-खंड चिंतन से निकालकर संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास की दिशा है।

इस शिक्षा नीति का एक महत्वपूर्ण आयाम है मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा। संयुक्त राष्ट्र तक ने दो दशक पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मातृभाषा के महत्व को समझा और मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया। अनेक शिक्षाविद् व समाजविज्ञानी मानते हैं कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा से बच्चे की बौद्धिक परिपक्वता मजबूत होती है। इससे बड़े होने पर वह कुछ भी सीखने, पढ़ने व ग्रहण करने के लिए ज्यादा क्षमतावान व समर्थ बनता है। अंग्रेजी ने सुनियोजित तरीके से न केवल भारत के भाषायी प्रवाह को अवरुद्ध किया है, बल्कि बच्चों की बौद्धिक क्षमता को भी संकुचित किया है। इसे अंग्रेजी विरोध के तौर पर नहीं, बल्कि बच्चों के शैक्षणिक भविष्य के उन्नयन के रूप में देखा जाना चाहिए। इसीलिए यह शिक्षा नीति हमारी प्राथमिक शिक्षा को अंग्रेजी के हौवे से मुक्त करने का प्रयास है। कुल मिलाकर नई शिक्षा नीति भारत केंद्रित व मनुष्य केंद्रित सूत्र को सुदृढ़ करने वाली है।

यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने और उसे राष्ट्र निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उपयोग करने का मार्ग दिखाने वाली है। महात्मा गांधी ने जिस बुनियादी तालीम का सिद्धांत दिया, जिसमें जीवन मूल्यों का संस्कार और कौशल विकास दोनों हैं, इस शिक्षा नीति में वे तत्व समाहित दिखते हैं। दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कहा था कि छात्रों को चरित्र निर्माण की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। जाहिर है, उन्हें उच्च शिक्षा में यह कमी खटकती होगी। इसलिए इस शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षा सिर्फ पढ़ाई-लिखाई और डिग्री भर न रह जाए, बल्कि मानवीय मूल्यों व संस्कारों से युक्त शिक्षा हमारे विद्यार्थियों को विद्यावान भी बनाए।

पिछले दशकों के दौरान देश में शिक्षा के स्वरूप में व्यापक बदलाव आया है। शिक्षा का अर्थ धीरे-धीरे रोजगार हासिल करने के रूप में ही सिमटता जा रहा है, जिससे हम अपने प्राचीन ज्ञान की परंपरा को खोते जा रहे हैं। इससे समाज नैतिक रूप से क्षीण होता जा रहा है। अंग्रेजों ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप हमारी शिक्षा नीति तय की और हम अभी तक उसे ही ढोते आए हैं। ऐसे में हालिया जारी नई शिक्षा नीति को कुछ इस तरह से तैयार किया गया है, जो हमें औपनिवेशिक मानसिक दासता से मुक्ति दिला सकती है।

[कुलपति, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर]

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