Analysis: यूपी की राजनीति के दो कुशल खिलाड़ियों के बीच कप्तानी के लिए टकराव के आसार

अखिलेश यादव अभी अनुभवहीन हैं। उन्हें बहुत कुछ सीखना है। इसके क्या निहितार्थ हैैं, यह भविष्य ही बताएगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 29 Mar 2018 09:09 AM (IST) Updated:Thu, 29 Mar 2018 04:50 PM (IST)
Analysis: यूपी की राजनीति के दो कुशल खिलाड़ियों के बीच कप्तानी के लिए टकराव के आसार
Analysis: यूपी की राजनीति के दो कुशल खिलाड़ियों के बीच कप्तानी के लिए टकराव के आसार

नई दिल्ली [ राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ ]। कर्नाटक चुनाव की तिथि घोषित हो जाने के कारण देश का ध्यान भले ही इस राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों की ओर चला गया हो, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश पर लोगों की निगाह बनी हुई है। इसका कारण यही जानना है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच की दोस्ती किस रूप में आगे बढ़ती है और उनके बीच तालमेल किसी मजबूत गठबंधन में तब्दील होता है या नहीं? 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में विपक्षियों का सूपड़ा साफ कर दिया था और रही-सही कसर पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों के प्रचंड बहुमत ने पूरी कर दी थी, लेकिन गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में जीत के बाद विपक्षी गोलबंदी बढ़ रही है।

सपा के दफ्तर में मायावती, दोस्ती पक्की

उपचुनावों में मायावती से यकायक एकतरफा समर्थन हासिल करने के बाद अखिलेश यादव ने न केवल उनकी प्रशंसा करनी शुरू कर दी, बल्कि यह भी देखने को मिल रहा है कि सपा कार्यालय में डॉ. आंबेडकर के पोस्टर- बैनर पर मायावती के चित्र को भी डॉ राममनोहर लोहिया के साथ स्थान दिया गया है। मायावती ने 1995 के गेस्ट हाउस कांड के लिए अखिलेश को निर्दोष घोषित कर दिया, क्योंकि तब वह नाबालिग थे और राजनीति में भी नहीं थे। अखिलेश ने भी समर्थन के लिए रघुराज प्रताप सिंह का आभार जताने वाला अपना ट्वीट डिलीट करके परवान चढ़ते रिश्तों पर आंच नहीं आने दी। दोनों दल संभलकर आगे बढ़ रहे हैं। उपचुनावों के नतीजे आने के बाद दोनों दलों के बीच तमाम कड़वाहट के बाद भी अखिलेश मायावती के घर भी गए। ठीक वैसे ही जैसे मुलायम सिंह यादव कांशीराम के यहां जाया करते थे।

सपा-बसपा का मिलन भाजपा को भारी पड़ सकता है

पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा को मिले मतों के उपचुनावों में एक साथ जुड़ जाने के कारण यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भाजपा के लिए आगे भी मुश्किल होगी। एक फार्मूले के अनुसार, 2014 के निर्वाचन में जो द्वितीय स्थान पर रहा उस पार्टी का उम्मीदवार भाजपा का मुकाबला करेगा। उपचुनावों में एकल चलकर जमानत गंवा चुकी कांग्रेस को भी भाजपा हराओ अभियान में स्थान मिलने की संभावना व्यक्त करते हुए कुछ लोगों ने संभावित सीटों का बंटवारा भी कर दिया है। उनके अनुसार सपा-बसपा 30-30 और कांग्रेस 20 स्थानों पर चुनाव लड़ेगी। एक अन्य अनुमान यह लगाया जा रहा है कि कांग्रेस को शायद दस सीटें ही मिलें।

भाजपा के लिए पचास प्रतिशत मत प्राप्त करने का लक्ष्य घोषित

जब विपक्षी एकता को लेकर अनुमानों का ऐसा दौर चल रहा है तब भाजपा अध्यक्ष ने आगे होने वाले सभी चुनावों में पचास प्रतिशत मत प्राप्त करने का लक्ष्य घोषित किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 42 प्रतिशत मत प्राप्त कर 73 सीटों पर कब्जा किया था। इनमें दो सीटें सहयोगी दल अपना दल की थीं। यदि भाजपा पचास प्रतिशत मत प्राप्त करने का लक्ष्य वास्तव में हासिल कर लेती है तो 2014 से बेहतर परिणाम की उम्मीद का दावा विश्वसनीय माना जा सकता है, लेकिन जिन कारणों से गोरखपुर और फूलपुर में उसकी पराजय हुई वे मौजूद बने रहे तो उत्तर प्रदेश में उसके लिए यथास्थिति कायम रख पाना भी बहुत दूर की बात होगी।

मध्य वर्ग में बढ़ रही उदासीनता भाजपा के लिए नुकशानदेह हो सकती है

मायावती और अखिलेश दोनों ही वर्गीय मतदाताओं में वर्चस्व रखते हैं। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अप्रासंगिक हो चुकी है। उसे रायबरेली और अमेठी के अलावा अन्य कहीं से उम्मीद नहीं है। एक महत्वपूर्ण पक्ष है मुस्लिम मतदाताओं का। उनका दबाव कितना असरदार होगा? क्या वे बिहार के समान निर्णायक भूमिका निभा पाएंगे या फिर अपनी एकजुटता से हिंदू एकजुटता को प्रोत्साहित कर भाजपा के लिए राह आसान करेंगे? यह इस पर निर्भर करेगा कि भाजपा मध्य वर्ग के साथ ही किसानों को कितना लुभा पाती है? मोदी ओर योगी पर भरोसा अटूट रहना भाजपा का सबसे प्रबल पक्ष है, लेकिन इस भरोसे को मजबूत करने के लिए मध्य वर्ग में बढ़ रही उदासीनता को दूर करना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए, जो घटने के बजाय बढ़ रही है। दरअसल भाजपा को वैसी ही सक्रियता दिखाने की जरूरत है जैसी उसने गुजरात विधानसभा चुनाव के समय पहले दौर के मतदान का आकलन करने के बाद दिखाई थी।

अखिलेश और मायावती में कप्तानी के लिए ठन जाने के आसार हैैं

भाजपा को सफलता पाने से रोकने के लिए जिस प्रकार कर्नाटक में क्षेत्रीय, वर्गीय, जातीय और सांप्रदायिक भावनाओं को उभारा जा रहा है उसका जवाब भाजपा सबका साथ सबका विकास के जरिये देने की कोशिश कर रही है। कर्नाटक के नतीजे बताएंगे कि भाजपा का यह नारा जमीन पर कितना उतर सका और उसका उसे कितना लाभ मिला? यदि सपा-बसपा के बीच तालमेल हो जाता है तो मायावती ने अब तक जो संकेत दिए हैं उसके हिसाब से वह द्वितीय स्थान पर रहने की अभ्यस्त नहीं हैं। प्रथम स्थान पर पहुंचने के लिए अखिलेश यादव ने कुनबे को जिस तरह समेटा उससे उनकी आकांक्षा का संकेत मिलता है, लेकिन आकांक्षाओं के टकराते ही इन दो खिलाड़ियों में कप्तानी के लिए ठन जाने के आसार हैैं। ये दोनों नेता जिन वर्गों पर असर रखते हैैं उनमें परंपरागत टकराव भी एक समस्या है। इसका समाधान ऊपरी एकता से संभव नहीं। अभी के सुहावने बोल आने वाले दिनों में पैंतरेबाजी में तब्दील हो सकते हैैं। इसी पैैंतरेबाजी के चलते गेस्ट हाउस कांड घटित हुआ था। तब सपा-बसपा की मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली साझा सरकार से बसपा के समर्थन वापस लेने की घोषणा होते ही नाराज सपा नेताओं ने गेस्ट हाउस में बैठक कर रहीं मायावती पर हमला बोल दिया था।

सपा-बसपा के बीच दोस्ती एक बेमेल समझौता है

सपा-बसपा के बीच दोस्ती एक बेमेल समझौता है, लेकिन अस्तित्व के लिए जिस परिस्थिति में 1993 में मुलायम सिंह और कांशीराम में जो समझौता हुआ था उसके बाद की परिस्थितियों का संज्ञान लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि यदि दोनों मिलकर 1993 के समान भाजपा को पछाड़ भी देते हैं तो प्रदेश दो दशक तक जिन हालात से जूझता रहा उनकी पुनरावृत्ति हो सकती है। स्पष्ट है कि भाजपा को जिन उम्मीदों से जनता ने 2017 के निर्वाचन में सत्ता सौंपी उन्हें जमीन पर उतारने की चुनौती है। इसके बिना वह विपक्ष की मिली-जुली या बिखरी चुनौती का सामना नहीं कर सकेगी।

मायावती के बयान में अखिलेश यादव अनुभवहीन हैं

मायावती ने राज्यसभा चुनाव परिणाम के बाद जो बयान दिया उसे ही भावी गठबंधन का आधार माना जा रहा है, लेकिन उन्होंने बड़ी सावधानी के साथ गठबंधन शब्द का एक बार भी उपयोग नहीं किया। उन्होंने दो और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। एक यह कि उनकी पार्टी का कैडर अब किसी भी उपचुनाव में किसी उम्मीदवार के लिए काम करने के बजाय बूथ स्तर पर सर्वसमाज में अपनी मजबूती के लिए काम करेगा और दूसरा अखिलेश यादव अभी अनुभवहीन हैं। उन्हें बहुत कुछ सीखना है। इसके क्या निहितार्थ हैैं, यह भविष्य ही बताएगा।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]

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