इतिहास की गलती सुधारने का समय, पाक अल्पसंख्यकों के प्रति भारत को निभाना होगा अपना दायित्व

देश विभाजन के वक्त पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के प्रति जिस दायित्व से भारत ने पल्ला झाड़ा था अब उसे पूरा किया जाए।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Thu, 10 Oct 2019 10:30 PM (IST) Updated:Fri, 11 Oct 2019 12:39 AM (IST)
इतिहास की गलती सुधारने का समय, पाक अल्पसंख्यकों के प्रति भारत को निभाना होगा अपना दायित्व
इतिहास की गलती सुधारने का समय, पाक अल्पसंख्यकों के प्रति भारत को निभाना होगा अपना दायित्व

[अवधेश कुमार]। पाकिस्तानी संसद ने एक विधेयक को पेश होने से पहले ही खारिज कर दिया जिसमें संविधान संशोधन के जरिये गैर मुस्लिमों को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने की अनुमति देने का प्रावधान था। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के ईसाई सांसद डॉ. नवीद आमिर जीवा इसके लिए संविधान संशोधन कराना चाहते थे। इसकी चर्चा करते ही पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में मानो तूफान आ गया।

संसदीयकार्य राज्यमंत्री अली मुहम्मद ने इसका वरोध किया। उनका कहना था कि पाकिस्तान एक इस्लामिक गणराज्य है जिसमें गैर-मुस्लिम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो ही नहीं सकता। कई विपक्षी सदस्यों ने भी सरकार का समर्थन किया। पाकिस्तानी मीडिया ने भी इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी।

पीएम होने के लिए मुस्लिम होना अनिवार्य

पाकिस्तानी संविधान की धारा 41 में स्पष्ट लिखा है कि प्रधानमंत्री होने के लिए मुस्लिम होना अनिवार्य है। इसी तरह धारा 91 में राष्ट्रपति की अर्हता है। यानी कोई हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन या ईसाई वहां प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनना चाहता है तो उसे धर्म बदलकर मुसलमान बनना होगा। इसके पीछे तर्क यह है कि जब देश का विभाजन ही हिंदू और मुसलमान के नाम पर हुआ तो वहां मुसलमानों को ऐसा विशेषाधिकार स्वाभाविक है।

भारत के सामने भी ऐसा मजहबी संविधान बना देने में समस्या नहीं थी। इसका उत्तर यही है कि हिंदू दर्शन में ऐसे किसी मजहबी राज्य की कल्पना ही नहीं है। जिस राजव्यवस्था का हमारे प्राचीन साहित्य में विवरण है वहां मौजूदा थियोक्रेटिक स्टेट यानी मजहबी राज्य नहीं था। इसलिए भारत वैसा हो ही नहीं सकता है। यह है दोनों देश के चरित्र में अंतर।

जोगेंद्र नाथ मंडल बने थे विधि मंत्री 

सभी इस्लामिक गणराज्यों में ऐसे ही संविधान हैं। मोहम्मद अली जिन्ना एक गैर मजहबी व्यक्ति थे। उन्होंने विभाजन के बाद अपनी संविधान सभा में साफ कहा था कि यहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान अधिकार होगा। पहले स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के रूप में जिन्ना ने कहा था कि हम रंग और नस्ल के भेदभाव से परे देश बनाकर दिखाएंगे। जिन्ना ने भारत से दलितों की हितसाधना के लक्ष्य से पाकिस्तान गए जोगेंद्र नाथ मंडल को विधि मंत्री बनाया। मगर जिन्ना के जीवनकाल में ही पाकिस्तानी नेताओं का भयावह मजहबी व्यवहार दिखने लगा था।

जिन्ना के वादे के कारण लाखों हिंदू और सिखों ने स्वेच्छा से पाकिस्तान में रहना स्वीकार किया। मगर जो स्थिति बनती गई उसमें उनके लिए पाकिस्तान में अपनी संस्कृति और परंपरा ही नहीं, बल्कि इज्जत और संपत्ति तक की रक्षा मुश्किल होती गई। जैसी हिंसा और लूट के साथ जबरन धर्मांतरण का सामना हिंदुओं को करना पड़ा, उसका विवरण रोंगटे खड़े करता है।

दलित हिंदुओं के साथ सबसे अधिक उत्पीड़न

अल्पसंख्यकों की संपत्तियों के लिए जो शत्रु संपत्ति कानून बना उसका भयंकर दुरुपयोग हुआ। संपत्तियों पर जबरन कब्जा सामान्य बात हो गई और इसके खिलाफ शिकायत के लिए कहीं कोई जगह नहीं। विडंबना देखिए कि जिन दलित हिंदुओं को विभाजन के पूर्व मुस्लिम लीग ने यह कहकर साथ लिया था कि सवर्ण हिंदू तो आपको अपना भाई मानते नहीं, लेकिन पाकिस्तान आपको बराबरी का दर्जा देगा, उनका ही सबसे अधिक उत्पीड़न किया गया।

जोगेंद्र नाथ ने मंत्रिमंडल से दिया था इस्तीफा 

यहां जोगेंद्र नाथ मंडल की चर्चा जरूरी है। 1940 के दशक में वह दलितों के बड़े नेता बन चुके थे, लेकिन बाबा साहब आंबेडकर के विपरीत वह मुस्लिम लीग के साथ जुड़ गए। विधि मंत्री के साथ वह पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य भी बने, मगर वहां अपने ही लोगों के साथ मजहबी बर्बरता के सामने वह असहाय थे। इससे आजिज आकर आठ अक्टूबर, 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

पाकिस्तानी हिंदुओं के साथ होगा न्याय

तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को उन्होंने जो लंबा पत्र लिखा वह पाकिस्तान का सच समझने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने लिखा कि ‘पूर्वी पाकिस्तान के पिछड़े हिंदुओं के उत्थान के अपने मिशन में विफल रहने की कुंठा के चलते मैं यह कदम उठा रहा हूं। अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भविष्य में पाकिस्तान हिंदुओं के लिए रहने लायक नहीं रह जाएगा। धर्मांतरण और दमन की राजनीति के कारण उनके लिए केवल अंधेरा ही रहेगा। मैं अपनी आत्मा की आवाज कैसे दबा सकता हूं और कैसे पाकिस्तानी हिंदुओं को यह भरोसा दिला सकता हूं कि भविष्य में उनके साथ न्याय होगा?’ यह था पाकिस्तान का सच जिसे मंडल ने व्यक्त किया।

मंडल हिंदू थे अपने समुदाय के बारे में करते थे बात

अंतत: उन्हे भी भारत लौटना पड़ा, लेकिन यहां के लोग उन्हें गद्दार कहते थे। इसीलिए वह गुमनामी में ही चल बसे। ऐसे पाकिस्तान में, जिसके निर्माताओं में से एक ने कहा कि भविष्य में यह हिंदुओं के रहने लायक नहीं रह जाएगा वहां यह कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई गैर मुस्लिम दो शीर्ष पदों पर पहुंच सकता है। मंडल हिंदू थे इसलिए अपने समुदाय के बारे में बात की। दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भी यही स्थिति थी। इसीलिए भारत में समुदायों की अदला-बदली की भी मांग जोर से उठी थी। सिख नेता मास्टर तारा सिंह इसकी सबसे बड़ी आवाज बने थे। भारत को इन मांगों के साथ खड़ा होना चाहिए था, लेकिन हुआ अजीब।

भारत और पाक पीएम के बीच हुआ समझौता

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लियाकत अली खान से बात की। वह दिल्ली आए। छह दिनों की वार्ता के बाद दोनों नेताओं के बीच आठ अप्रैल, 1950 को एक समझौता हुआ। इसमें दोनों देशों ने अपने यहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का वचन दिया। इसके बाद दोनों देशों में अल्पसंख्यक समितियां गठित हुईं। यह अदूरदर्शितापूर्ण कदम था। भारत में तो अल्पसंख्यकों के लिए समस्या थी ही नहीं। समस्या पाकिस्तान में थी।

पाकिस्तान में खत्म होते गए अल्पसंख्यक 

समझौते का पूरे भारत में विरोध हुआ। पता नहीं गाधी जी जीवित होते तो क्या करते, पर इस समझौते ने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को निराश्रित कर दिया। मंडल ने अपने पत्र में लिखा था कि पूर्वी बंगाल व मुस्लिम लीग ने नेहरू-लियाकत समझौते का इस्तेमाल केवल कागज के एक टुकड़े के रूप में किया। भारत सरकार उस समय अपनी जिम्मेदारी का पालन नहीं कर सकी। परिणाम सामने है। अल्पसंख्यक वहां धीरे-धीरे खत्म होते गए। जो पाकिस्तान हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों और ईसाइयों आदि के लिए तब था, आज भी वही है। इसी कारण मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार जिस नागरिकता कानून की बात कर रही है उसका मकसद समझ में आता है। भारत ने जिस जिम्मेदारी से तब पल्ला झाड़ा था कम से कम अब उस भूल का परिमार्जन होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

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