कानून के राज के लिए सबसे बड़ा खतरा है ‘शाहीन बाग’ का बनना, कानून तोड़ने वालों में डर जरूरी

असल में शाहीन बाग इसीलिए अस्तित्व में आते और फलते-फूलते हैं क्योंकि कानून का डर मन से निकल गया था। शाहीन बाग जैसे इलाके इसीलिए फलते-फूलते गए क्योंकि कानून का डर मन से निकल गया था लेकिन अब यह परिपाटी बदल रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 12 May 2022 10:29 AM (IST) Updated:Thu, 12 May 2022 10:32 AM (IST)
कानून के राज के लिए सबसे बड़ा खतरा है ‘शाहीन बाग’ का बनना, कानून तोड़ने वालों में डर जरूरी
कानून के राज के लिए सबसे बड़ा खतरा है ‘शाहीन बाग’ का बनना।

प्रदीप सिंह। दिल्ली के शाहीन बाग में नगर निगम का बुलडोजर गया और खाली लौट आया। यह कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। ऐसा न होता तो आश्चर्य होता। दरअसल शाहीन बाग एक प्रवृत्ति है। देश के हर राज्य और शहर में शाहीन बाग हैं। इन्हें पिछले सात दशकों से पाला-पोसा गया है। इन्हें कानून का पालन न करने की आदत है, जिसे ये अब अपना अधिकार समझने लगे हैं। कानून का पालन करने को कहने पर इन्हें लगता है कि प्रताड़ित किया जा रहा है। इसलिए हर समय विक्टिम कार्ड तैयार रहता है।

देश की जिन एजेंसियों पर कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है, उनके सामने समस्या यह है कि कानून के दायरे में रहकर कानून तोड़ने को अपना मौलिक अधिकार समझने वालों से कैसे निपटें। इसमें एक समुदाय विशेष बहुत आगे रहता है और एक तबका उसका पैरोकार बनकर उसके बचाव में लगा रहता है। इन स्वयंभू पैरोकारों को लगता है कि वे उस वर्ग को सत्ता के दमन से बचा रहे हैं। इनमें पत्रकार, वकील, लेखक, कलाकार, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और अवकाश प्राप्त न्यायाधीश भी हैं। इन वर्गो के जो लोग सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हैं या अभी सेवा में हैं, उनका भी यही रवैया है। आपको कई न्यायाधीशों की टिप्पणियां सुनकर लगेगा कि मानो कोई न्यायाधीश नहीं, बल्कि एक एक्टिविस्ट बोल रहा हो।

सवाल यही है कि ऐसा होता क्यों है? क्यों पीड़ित हिंदू भी इन्हें अत्याचारी नजर आता है और अल्पसंख्यक समुदाय का अपराधी भी पीड़ित दिखता है। यह काम अंग्रेज करके गए और कई पीढ़ियों के बाद भी यह बीमारी गई नहीं है। अंग्रेजों ने इस देश के हिंदुओं के मन में एक हीनभावना भर दी कि तुम पराजित कौम हो। इसके साथ ही मुसलमानों की श्रेष्ठता का भाव भी जगाया। तीसरी बात यह हुई कि इस देश के प्रतिष्ठानों में बैठे लोगों ने पश्चिम की पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया। सनातन संस्कृति और भारतीय सभ्यता को वर्जित क्षेत्र मान लिया गया। जो सनातन संस्कृति की बात करता है, वह सांप्रदायिक तो है ही, विज्ञान, टेक्नोलाजी और प्रगति के रास्ते का भी रोड़ा है। इस तरह से अंग्रेजों से विरासत में मिले विमर्श को अनिवार्य राष्ट्रीय विमर्श का दर्जा मिल गया।

अवधेश राजपूत।

इस देश के हुक्मरानों को हमेशा इस बात का डर सताता रहता है कि कहीं उनके किसी काम या बात से ऐसा आभास न मिले कि वे हिंदुओं के पक्ष में हैं। इस बीमारी की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसमें जो गलत है उसे सही के रूप में मान्यता मिल चुकी है। इसलिए अब जो सही बोलता है वही गलत नजर आता है। सब कुछ अंग्रेजों की स्थापित मान्यताओं की तरह चल रहा था। किसी को कोई कष्ट नहीं था। इस देश की बहुसंख्यक आबादी ने इसे अपना प्रारब्ध मानकर स्वीकार कर लिया था। इस मान्यता की अग्निपरीक्षा भी हो चुकी थी। केंद्र में सरकारों के बदलने, अलग-अलग विचारधारा की पार्टियों के सत्ता में आने के बाद भी कोई बदलाव न होने से इसे सर्वमान्य मान लिया गया।

ऐसे हालात आठ साल पहले तब बदलना आरंभ हुए, जब नरेन्द्र मोदी नाम का एक ऐसा नेता प्रधानमंत्री बन गया जिसने इस स्थापित व्यवस्था को सिर के बल खड़ा कर दिया। तबसे देश में कोहराम मचा है। दृष्टिहीन व्यक्ति ने जैसे हाथी की पहचान बताई वैसे ही अलग-अलग तबके के लोग मोदी को परिभाषित कर रहे हैं। किसी को मोदी कट्टर सांप्रदायिक, किसी को बहुसंख्यकों का वर्चस्व स्थापित करने वाला तो किसी को जनतंत्र विरोधी और किसी को देश का सत्यानाश करने वाले के रूप में नजर आ रहे हैं। मोदी ने सिर्फ इतना किया है कि जो सही है उसे सही होने की मान्यता दिला दी है, जिनकी कई पीढ़ियां पश्चिमी संस्कृति की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाईं। उन्हें लग रहा है कि सब गलत हो रहा है। सनातन संस्कृति की पुनस्र्थापना को भला सही कैसे कहा जा सकता है।

मोदी को पता था कि जिनकी जड़ें सत्ता रस से सींची गई हैं, वे उन्हें उखाड़ने की पुरजोर कोशिश करेंगे और वे इस अपेक्षा पर खरे भी उतरे। समस्या इस देश के उस वर्ग में है जो स्वयं को प्रबुद्ध और शहरी समाज का नुमाइंदा मानता है। इसी वर्ग में सबसे ज्यादा बौखलाहट है। इसलिए मोदी ने शुरू से ही इस वर्ग की उपेक्षा की। उन्हें पता था कि इन्हें मनाने-समझाने की कोशिश करना असल में गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा है। मोदी को देश के आम आदमी पर भरोसा था। वही उनकी असली ताकत हैं। जो कथित पढ़े-लिखे नहीं समझ सके, वह आम लोगों को समझ में आ गया। वे मोदी और उनकी नीतियों के साथ हो गए। आम लोगों में जो यह नई चेतना आई है, वह मोदी की सबसे बड़ी ताकत और उनके विरोधियों की कमजोरी है। आपको जो बदलाव दिख रहा है वह इसी कारण से है।

क्या आज से पहले इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में रमजान और ईद पर ऐसी शांति रहेगी। नमाज सड़क पर नहीं, घर या मस्जिद में ही पढ़ी जाएगी। लाउडस्पीकर लगाने वाले ही उसे उतार लेंगे। बस एक संदेश ने इतना बड़ा बदलाव कर दिया। बहुत सीधा-सादा सा संदेश कि कानून तोड़कर बेखौफ घूमने का दौर बीत गया है। कानून तोड़ोगे तो उसकी कानूनी सजा भुगतनी पड़ेगी। कानून सबके लिए है और कानून की नजर में सब बराबर हैं। गड़बड़ एक वर्ग करे और संतुलन के लिए दोनों वर्गो के लोगों पर कार्रवाई करने का समय जा चुका है। जो करेगा वही भरेगा। यही कानून कहता है और यही संविधान कहता है।

 याद कीजिए सीएए के विरोध में जब शाहीन बाग मामले में सर्वोच्च अदालत भी अपना संवैधानिक दायित्व निभाने से हिचकिचा गई। सर्वोच्च अदालत ने यह तो पूछा कि जहांगीरपुरी में बुलडोजर क्यों गया और स्थगन आदेश दिया कि उसे तत्काल हटाया जाए। हालांकि उसने यह नहीं पूछा कि सड़क क्यों बंद की गई। न ही यह कहा कि उसे तत्काल प्रभाव से खाली कराया जाए। मी लार्ड न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। वह भी बिना पक्षपात के। क्या जहांगीरपुरी और शाहीन बाग इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। कानून के राज के लिए सबसे बड़ा खतरा है ‘शाहीन बाग’ का बनना।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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