दुख का मूल
भिखारी ने सोचा अब राजा के दर्शन और मिलने वाले दान से गरीबी दूर हो जाएगी।
एक भिखारी हर रोज की तरह सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। कुछ दूर ही चला था कि अचानक सामने से राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी ने सोचा अब राजा के दर्शन और मिलने वाले दान से गरीबी दूर हो जाएगी। जैसे ही राजा भिखारी के निकट आया। उसने अपना रथ रुकवा लिया, लेकिन यह क्या राजा ने उसे कुछ देने के बजाय अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उलटे उसी से भीख मांगने लगे। भिखारी को समझ ही नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे। खैर उसने अपनी झोली में हाथ डाला और जैसे-तैसे मन मसोस कर जौ के दो दाने राजा की चादर पर डाल दिए। राजा चला गया तो भिखारी भी दुखी मन से आगे चल दिया। उस दिन उसे और दिनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही भीख मिली, पर उसे खुशी नहीं हो रही थी। दरअसल उसे राजा को दो दाने भीख देने का बड़ा मलाल था। बहरहाल शाम को घर आकर जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसकी झोली में दो दाने सोने के हो गए थे। वह समझ गया कि यह सब दान की महिमा के कारण हुआ। उसे इस बात पर बेहद पछतावा हुआ कि काश, राजा को कुछ और दाने दान कर देता। वह समझ गया कि अवसर ऐसे ही लुके-छिपे ढंग से सामने आते हैं। समय रहते व्यक्ति उन्हें पहचान नहीं पाता।
यह मात्र कहानी नहीं है। जिंदगी की एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकर भी हम नहीं जानते जिसे समझ कर भी हम नहीं समझते। अंग्रेजी के विख्यात कवि वड्र्सवर्थ ने अपनी एक कविता में बड़े पते की बात कही है हम दुनिया में इतने डूबे हुए हैं कि प्रकृति से कुछ भी ग्रहण नहीं करते। उस प्रकृति से जो हमारी अपनी है। निन्यानबे के फेर में दुनिया के लेन-देन में अपनी सारी जिंदगी गुजार देते हैं। जिस दृष्टिकोण से जीवन का लक्ष्य बनाया है उसे पाने में जीवन की अधिकांश ऊर्जा लगाते हैं। सुख या दुख वस्तु के संग्रह से नापा जाने लगा है। अधिक से अधिक धन बटोरने की एक होड़ सी लगी हुई है। इसी होड़ में जीवन का वास्तविक अर्थ ही गुम होता जा रहा है। दुख का सबसे बड़ा कारण इच्छा या कामना ही है। चाहे हुए का न होना और अनचाहे का हो जाना दुख का मूल कारण है।
[ गणि राजेंद्र विजय ]