सोशल मीडिया के दौर में समाज

सोशल मीडिया है जो बहुत से ‘फ्रेंड्स’ होते हुए भी व्यक्ति को अकेला करके छोड़ देता है?

By Ravindra Pratap SingEdited By: Publish:Sat, 09 Sep 2017 04:04 AM (IST) Updated:Sat, 09 Sep 2017 04:04 AM (IST)
सोशल मीडिया के दौर में समाज
सोशल मीडिया के दौर में समाज

 विजय गोयल

इन दिनों इंटरनेट आधारित एक खतरनाक खेल ‘ब्लू व्हेल’ खासी चर्चा में है। यह खेल खेलने वाले बच्चों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। मैं जब भी ऐसी खबरें पढ़ता हूं, मन बहुत व्यथित होता है। मन में सवाल उठता है कि कोई खेल कैसे किसी बच्चे की जिंदगी खत्म करने का माध्यम बन सकता है? लेकिन डिजिटल दुनिया के खेल ‘ब्लू व्हेल’ के बारे में ऐसा ही है। इस खेल को एक कुंठित व्यक्ति ने डिजाइन किया है, जिसके चक्रव्यूह में फंसने वाले बच्चे तरह-तरह के टास्क करते हैं और आखिरी टास्क होता है जान देने की कथित बहादुरी दिखाने का। हमारे मन में खेल शब्द सुनते ही जोश और उमंग का संचार होता है। हमारे बचपन के खेल कितने निराले होते थे, यह बताने की जरूरत बड़ों को नहीं है।

हां, आज के बच्चे उन बहुत सारे खेलों के बारे में नहीं जानते हैं जो तन में स्फूर्ति तो भरते ही थे, साथ ही हमें बौद्धिक रूप से भी मजबूत बनाते थे। समूहों में खेले जाने वाले खेल नेतृत्व की क्षमता भी बढ़ाते थे और सामुदायिक भावना भी मन में भरते थे। तब हम सोच भी नहीं सकते थे कि शतरंज, कैरम, लूडो या सांप-सीढ़ी जैसे कुछ खेलों को छोड़कर कोई खेल घर के कमरों में बैठकर भी खेला जा सकता है, लेकिन अब घरों से शतरंज और लूडो की बिसातें ही गायब होती जा रही हैं। आज बहुत से खेल डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध हैं। कभी भी खाली समय में या यात्र करते वक्त बहुत से लोग ये खेल खेलते हुए देखे जा सकते हैं। वे इनमें इतने तल्लीन होते हैं कि आसपास क्या हलचल हो रही है, इसका भी पता उन्हें नहीं चलता। दफ्तर में खाली वक्त में लोग कंप्यूटर पर खेलों की आभासी दुनिया में खोए होते हैं। मैट्रो, बसों, टैक्सियों में सफर के दौरान लोग अपने-अपने स्मार्ट फोनों पर झुके रहते हैं। आसपास भीड़भाड़ के बावजूद पूरी तरह तन्हा होते हैं।

यही वजह है कि आदमी अपने इर्द-गिर्द को भी भूलकर ख़ुद में ही सिमटता जा रहा है। सामाजिक प्राणी आदमी समाज से कटता जा रहा है। लोगों के अंदर सकारात्मक संवेदनाएं खत्म होती जा रही हैं। कोई घायल सड़क पर तड़पता रहता है, आसपास भीड़ भी जुटती है तो लोग केवल उसकी तस्वीरें या वीडियो बनाते रहते हैं, उसे अस्पताल लेकर जाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। बहुत कम लोग हैं जो जरूरतमंदों की मदद के लिए तुरंत आगे आते हैं। फिलहाल तो इसी तथ्य से उम्मीद बरकरार है। लोग कभी तो आभासी दुनिया से ऊबकर आसमान को जी भरकर देखेंगे।1वैज्ञानिक तरक्की अच्छी बात है, पर क्या सामाजिक पतन की कीमत पर इसे लक्ष्य की ओर बढ़ने की सीढ़ी करार दिया जा सकता है? सोशल मीडिया के इस दौर में सामाजिक कड़ियां बुरी तरह बिखरने लग जाएं तो चिंता की बात है।

दो साल पहले अगस्त के आखिरी दिन आधी रात को दिल्ली के एक बच्चे ने वाट्सएप्प पर अपनी तस्वीर के साथ संदेश लिखा कि ऐसी दुनिया में नहीं रहना, जहां पैसे की कीमत इंसान से ज्यादा है। रात को वह पंखे से झूल गया। इसके कुछ दिन बाद ही खबर आई कि एक लड़की ने खुदकशी करने का सबसे नायाब तरीका ढूंढ़ने के लिए करीब सौ वेबसाइट्स सर्च की। कुछ युवाओं ने खुदकशी के लाइव वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किए। ऐसी खबरें चिंता बढ़ाती हैं। यह कैसा सोशल मीडिया है जो बहुत से ‘फ्रेंड्स’ होते हुए भी व्यक्ति को अकेला करके छोड़ देता है। ऐसा नहीं है कि प्रौद्योगिकी का नकारात्मक इस्तेमाल ही हो रहा है।

यह तर्क किसी भी स्तर पर नहीं दिया जा सकता है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से तो हम दुनिया के साथ कदमताल ही नहीं कर पाएंगे, लेकिन इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग पूरी दुनिया में हो रहा है। आतंकवाद, तमाम तरह के आर्थिक घोटाले, जासूसी वगैरह में इंटरनेट का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। अकेले हमारे देश में 50 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। सौ करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि बचपन से ही लोगों को इसके सकारात्मक इस्तेमाल के बारे में जागरूक किया जाए।

आज सरकारी कामकाज आधुनिक तौर-तरीकों से किए जाएं, इस ओर काफी ध्यान दिया जा रहा है। निजी क्षेत्र भी सोशल मीडिया और इंटरनेट को तरजीह दे रहा है। शिक्षा, रोजगार, उत्पादन सभी क्षेत्रों में संचार के साधनों की तरक्की बहुत कारगर साबित हो रही है। ऐसे में जिस गति से व्यक्तिगत और सामुदायिक ‘यूजर्स’ की संख्या में इजाफा हो रहा है, उसी गति से कंटेंट मैनेजमेंट की भी जरूरत है। सोशल मीडिया को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने की भी जरूरत है।

अभिभावकों के लिए भी रिफ्रेशर कोर्स कराने की व्यवस्था की जा सकती है। सरकारी और निजी क्षेत्र की संचार सुविधाएं देने वाली तमाम कंपनियों को इस बारे में सोचना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर हमारे दोस्तों की संख्या लाखों में होने के बावजूद हम रिश्तों की गर्माहट का गुनगुना अहसास भूलकर धीरे-धीरे अकेलेपन के सर्द अंधेरों में खो जाएं।

[लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं]

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