कामचलाऊ उपायों से नहीं बचेगी दिल्ली

यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा। सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 11 Nov 2017 10:13 AM (IST) Updated:Sat, 11 Nov 2017 10:13 AM (IST)
कामचलाऊ उपायों से नहीं बचेगी दिल्ली
कामचलाऊ उपायों से नहीं बचेगी दिल्ली

(पंकज चतुर्वेदी)। दिल्ली और उसके आसपास घना स्मॉग क्या छाया, तमाम लोगों ने सारा दोष पंजाब-हरियाणा के पराली जलाने वाले किसानों पर डाल दिया। इसके बाद वातावरण के जहरीले होने की ऐसी इमरजेंसी घोषित की गई कि दिल्ली महानगर की सड़कों पर वाहनों की सम-विषम योजना का एलान कर दिया गया। यह योजना दिल्ली के विस्तारित क्षेत्र गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद या गुरुग्राम में शायद ही लागू हो। हकीकत यह है कि बारिश के कुछ दिन छोड़कर दिल्ली-एनसीआर में पूरे साल वायु प्रदूषण बना ही रहता है। गर्मी में प्रदूषण का दोष तापमान और राजस्थान-पाकिस्तान से आने वाली धूल को दे दिया जाता है तो ठंड में पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने वाले किसानों को। इसमें कोई शक नहीं कि खेतों में फसलों के अवशेष यानी पराली जलाने से पैदा धुआं परिवेश को जहरीला बनाने में एक भूमिका अदा कर रहा है, लेकिन दिल्ली की हवा को इतना हानिकारक बनाने में खुद दिल्लीएनसीआर ही बड़ा दोषी है। इन दिनों दिल्ली में हवा की गति बहुत कम है और ऐसे में पंजाब की तरफ से हवा के साथ काले धुएं के उड़ आने की मात्रा बेहद कम है। दरअसल इस खतरे का मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है। इसी कारण दिल्ली-एनसीआर में पूरे साल हवा ‘खराब या फिर बेहद खराब’ स्तर की होती है। 

दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, यातायात जाम और राजधानी से सटे इलाकों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रही हैं। सीआरआरआइ की एक रपट के मुताबिक राजधानी के पीरागढ़ी चौक से हर रोज हजारों वाहन गुजरते हैं। उनके जाम में फंसने से तमाम कार्बन निकलता है। इसी तरह कनाट प्लेस के निकट कस्तूरबागांधी मार्ग पर वाहनों के रेंगते हुए चलने के कारण उनसे निकला कार्बन वातावरण को काला करता है। कुछ ऐसा ही हाल दिल्ली के अन्य इलाकों का है। एक अनुमान के तहत दिल्ली की सड़कों पर हर रोज करीब 40 हजार लीटर ईंधन महज जाम में फंस कर बर्बाद होता है। कहने को तो पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुना ज्यादा न हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फेफड़े में खराबी की शिकायत के साथ अस्थमा, कैंसर और दिल के रोगी बढ़ना।

यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करें तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में बड़ा योगदान धूल और मिट्टी के कणों का है। यह करीब 24-25 प्रतिशत है। फिर वाहनों के उत्सर्जन का है। पराली या अन्य जैव पदार्थों के जलने से उत्पन्न धुएं का प्रतिशत 12 है। जाहिर है कि सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण हैं। इनका सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली-एनसीआर में दो सौ से अधिक स्थानों पर चल रहे बड़े निर्माण कार्य हैं। इनमें मेट्रो, फ्लाई ओवर, एनएच-24 के चौड़ीकरण के साथ भवनों का निर्माण भी शामिल है। किस्म-किस्म के निर्माण कार्य और खासकर जाम का कारण बनने वाले सड़क-मेट्रो संबंधी निर्माण कार्य धूल-मिट्टी तो उड़ाते ही हैं, वाहनों का उत्सर्जन भी बढ़ाते हैं। वाहन जब 40 किमी से कम की गति पर चलता है तो उससे उगलने वाला प्रदूषण कई गुना ज्यादा होता है।

एनएच-24 दिल्ली-एनसीआर की एक तिहाई आबादी के दैनिक आवागमन के अलावा कई राज्यों को जोड़ने वाला ऐसा मार्ग है जो महानगर के लगभग बीच से गुजरता है। एक तो इसके कारण पहले से बनी सड़कें संकरी हो गई हैं, फिर बगैर वैकल्पिक व्यवस्था किए इस पर वाहनों का बोझ डाल दिया गया है। ठीक इसी तरह के अन्य निर्माण कार्य के कारण हर दिन 65 करोड़ रुपये का ईंधन जल रहा है। जाहिर है कि यदि दिल्ली-एनसीआर की सांसें थमने से बचाना है तो यहां न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, बल्कि आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी शहरों में वही मानक लागू करने होंगे जो दिल्ली के लिए हों। अभी करीबी शहरों की बात कौन करे, खुद दिल्ली में ही जगह-जगह ओवर लोडेड वाहनों, आठ-दस सवारी लादे तिपहियों, पुराने स्कूटरों को रिक्शे के तौर पर दौड़ाया जा रहा है। ये सब भी हवा को जहरीला कर रहे हैं। वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा। दिल्ली में कई स्थानों पर सरे आम कूड़ा जलाया जाता है, जिसमें घरेलू ही नहीं मेडिकल और कारखानों का भयानक रासायनिक कचरा भी होता है। इस कूड़े-कचरे से उपजा धुआं पराली से कई गुना ज्यादा खतरनाक है। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा। सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। जब त्रासदी साल के 320-330 दिनों की है तो पांच दिन की सम-विषम योजना किस काम की? वाहनों की सम-विषम की योजना तो महज औपचारिकता मात्र है और इससे किसी भी तरह से वायु प्रदूषण पर नियंत्रण लगने वाला नहीं है।

(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)

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