संभव हैं एक साथ चुनाव, यह दुष्कर अवश्य है, लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं

जहां तक एक साथ चुनाव की बात है तो इस राह में भारत में दो प्रमुख संवैधानिक अवरोध दिखते हैं। पहला यह कि भिन्न-भिन्न समयावधि वाली विधानसभाओं और लोकसभा को एक साथ चुनाव के लिए कैसे साथ लाया जाए? चुनावों को एक साथ कराने का मुद्दा टेढ़ा है। इसमें कानूनी और संवैधानिक तरीकों के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों में आम सहमति की जरूरत भी होगी।

By Jagran NewsEdited By: Praveen Prasad Singh Publish:Mon, 29 Jan 2024 11:54 PM (IST) Updated:Mon, 29 Jan 2024 11:54 PM (IST)
संभव हैं एक साथ चुनाव, यह दुष्कर अवश्य है, लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं
दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, इंडोनेशिया और अमेरिका जैसे कई देशों में एक-साथ चुनाव होते हैं।

डा. एके वर्मा। पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में ‘एक देश-एक चुनाव’ पर गठित समिति ने देश में सभी पक्षों और जनता से 15 जनवरी तक सुझाव मांगे थे। समिति इन सुझावों पर विचार करने के साथ विभिन्न विशेषज्ञों से मंत्रणा कर रही है। ज्ञात हो कि सर्वप्रथम 1983 में चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने का सुझाव दिया था। इसके 16 वर्ष बाद 1999 में जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने चुनाव कानून सुधारों पर अपनी रिपोर्ट में इसकी संस्तुति की।

वर्ष 2017 में पूर्व-राष्ट्रपतियों प्रणब मुखर्जी और कोविन्द ने भी इसका समर्थन किया। 26 नवंबर, 2017 को नीति आयोग और विधि आयोग द्वारा आयोजित संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संबोधन में इस पर राष्ट्रीय विमर्श का आह्वान किया। तब विधि आयोग ने 2018 में इस पर विचार-विमर्श किया और रिपोर्ट सौंपी।

स्वतंत्रता के बाद चार बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए, मगर 1967 में आठ राज्यों में गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकारें बनने और दलबदल की समस्या से अस्थिरता आने के कारण यह क्रम टूट गया। आज चुनाव आयोग को प्रतिवर्ष चार-पांच राज्यों में चुनाव कराने पड़ते हैं, जिसमें अपने दल के स्टार प्रचारक के रूप में प्रधानमंत्री और तमाम मंत्रियों को लगना पड़ता है। इससे शासन-प्रशासन प्रभावित होता है। आदर्श आचार-संहिता से विकास कार्यों में बाधा पड़ती है। अत्यधिक धन खर्च होता है। पढ़ाई में व्यवधान उत्पन्न होता है।

दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, इंडोनेशिया और अमेरिका जैसे कई देशों में एक-साथ चुनाव होते हैं, जो दर्शाता है कि एक साथ चुनाव लोकतंत्र और संघवाद के विपरीत नहीं। इंग्लैंड में भी 2011 में संसद ने ‘निश्चित कार्यकाल अधिनियम’ पारित किया जिसके अनुसार मध्यावधि चुनाव तभी होंगे जब संसद दो तिहाई बहुमत से इसकी संस्तुति करे। इंग्लैंड में सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए, तब भी प्रधानमंत्री संसद को तुरंत भंग नहीं करा सकता। संसद के पास विकल्प होता है कि वह 14 दिनों के भीतर वैकल्पिक सरकार गठित कर सके।

जहां तक एक साथ चुनाव की बात है तो इस राह में भारत में दो प्रमुख संवैधानिक अवरोध दिखते हैं। पहला यह कि भिन्न-भिन्न समयावधि वाली विधानसभाओं और लोकसभा को एक साथ चुनाव के लिए कैसे साथ लाया जाए? चुनावों को एक साथ कराने का मुद्दा टेढ़ा है। इसमें कानूनी और संवैधानिक तरीकों के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों में आम सहमति की जरूरत भी होगी। संभव है कि कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना पड़े और कुछ सरकारों को समय से पूर्व त्यागपत्र दिलाना पड़े। यह उतना आसान नहीं होगा।

दूसरा अवरोध यह है कि एक साथ चुनाव हों भी तो कैसे सुनिश्चित किया जाए कि यह क्रम बना रहे। एक बार निर्वाचित होने पर अनेक कारणों से लोकसभा या विधानसभाओं को भंग होना पड़ता है। जैसे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पांच वर्ष के पहले ही त्यागपत्र दे दे। सरकार अविश्वास के प्रस्ताव पर पराजित हो जाए और लोकसभा या विधानसभा को भंग करने की सलाह दे। अनुच्छेद 356 के अंतर्गत किसी राज्य में आपातकाल लागू होने पर सरकार को बर्खास्त कर विधानसभा भंग कर दी जाए। सरकार का बजट प्रस्ताव गिर जाए और वह त्यागपत्र देकर नए चुनाव की सलाह दे या चुनावों के बाद कोई भी सरकार बनाने की स्थिति में न हो और पुनः मध्यावधि चुनाव करना पड़े आदि-इत्यादि।

स्पष्ट है कि उपरोक्त प्रत्येक स्थिति में लोकसभा या विधानसभाएं भंग होती हैं, जिससे चुनावों का क्रम बिगड़ता है। ऐसे में सरल उपाय यह है कि संविधान से लोकसभा और विधानसभाओं के भंग होने का प्रविधान ही समाप्त कर दिया जाए और उसे निलंबित रखने का प्रविधान किया जाए। इससे चुनावों का पंचवर्षीय क्रम नहीं बिगड़ेगा। निर्वाचित प्रतिनिधियों को पूरे पांच वर्ष का कार्यकाल मिलेगा। विकास कार्यों में बाधा नहीं आएगी। शासन और प्रशासन का ध्यान नहीं बंटेगा। पढ़ाई प्रभावित नहीं होगी तथा जनता और चुनाव-आयोग को बार-बार चुनावों से छुटकारा मिलेगा।

सरकारों के गिरने से उत्पन्न अस्थिरता से निपटने के लिए जर्मनी के संविधान का अनुसरण किया जा सकता है। जर्मन संविधान के अनुच्छेद 67 के अनुसार विपक्ष अपने प्रधानमंत्री (चांसलर) के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव तभी ला सकता है, जबकि वह पहले उसका उत्तराधिकारी चुने, जिससे सरकार गिरने की स्थिति में देश को तत्काल एक नई सरकार मिल सके। हालांकि यदि चांसलर स्वयं विश्वास प्रस्ताव लाए (जैसे बजट पर) और हार जाए तो अनुच्छेद 68 के अनुसार वह सदन को तत्काल भंग नहीं करा सकता। सदन को 21 दिन का समय मिलता है कि वह कोई नया चांसलर चुन सके। इसे कुछ संशोधनों के साथ हम स्वीकार कर सकते हैं, जिससे बिना चुनाव कराए सरकारों में परिवर्तन हो सके।

फिर भी, दोबारा 1967 जैसी स्थिति न उत्पन्न हो और चुनावों का पंचवर्षीय क्रम बना रहे, इसके लिए संविधान के अनेक प्रविधानों जैसे अनुच्छेद 75(3), 83, 85(1), 113, 164(2), 172, 174(1), 203, 243(यू), संविधान के भाग 15 (चुनाव संबंधी), 10वीं अनुसूची, और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950-51 एवं लोकसभा की कार्यप्रणाली संबंधी नियम 198 आदि में संशोधन करना पड़ेगा। इनमें कुछ संशोधनों के लिए आधे राज्यों की सहमति की भी जरूरत पड़ेगी।

यह कार्य दुष्कर अवश्य है, लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं। इस मुद्दे पर वर्तमान सांसद और विधायक एकमत हो सकते हैं, क्योंकि इसमें उनका भी व्यापक लाभ निहित है। एक बार निर्वाचित होने पर उनका पांच वर्ष का कार्यकाल सुरक्षित हो जाएगा और वे भी रोज-रोज के चुनावी झंझट से बचेंगे। फिर चुनाव बहुत खर्चीले भी हो गए हैं और सभी जनप्रतिनिधि चाहेंगे कि किसी तरह उनको पांच वर्ष के पूर्व चुनाव में न उतरना पड़े। यदि मोदी सरकार सभी सांसदों और सभी राज्यों के विधायकों को इसे समझा सकी तो उपरोक्त सभी संशोधनों पर दलीय सहमति प्राप्त की जा सकेंगी।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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