मौन प्रार्थना

मौन प्रार्थना का अर्थ है, अपने सकारात्मक विचारों को एकत्र कर किसी दिव्य प्रकाश युक्त बिंदु पर स्थिर करना। प्रार्थना में सबसे महत्वपूर्ण है, आपका सकारात्मक विचार।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 30 Jan 2017 12:33 AM (IST) Updated:Mon, 30 Jan 2017 12:37 AM (IST)
मौन प्रार्थना
मौन प्रार्थना

साधक शांत मुद्रा में आंखें बंद करके बैठ जाए और ईश्वर के दिव्य प्रकाश का स्मरण करे, तो अनंत अंतरिक्ष में विशाल प्रकाश पुंज दिखाई पड़ेगा। दोनों हाथ ऊपर की ओर उठाकर मन को नियंत्रित करके उस दिव्य आलोक में प्रवेश करने का प्रयास करें। भागते हुए मन को उस प्रकाश के केंद्र में स्थिर करें यहीं से मौन प्रार्थना शुरू होती है। मौन प्रार्थना का अर्थ है, अपने सकारात्मक विचारों को एकत्र कर किसी दिव्य प्रकाश युक्त बिंदु पर स्थिर करना। प्रार्थना में सबसे महत्वपूर्ण है, आपका सकारात्मक विचार। मनुष्य किस भाव से, किस कारण से, किस कामना की सिद्धि के लिए मंदिर में बैठा है, वह सब परमात्मा समझता है। मौन प्रार्थना में विचार प्रधान होता है। वहां कोई भाषा नहीं होती, केवल विचार होता है। आज विज्ञान भी मानने लगा है कि विचार से पदार्थ प्रभावित हो सकते हैं। वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि जिस प्रकार पदार्थ के अणु होते हैं, उसी प्रकार विचार के भी अणु होते हैं। अगर पदार्थ के अणु जीवंत हैं, तो विचार के भी अणु जीवंत होते हैं। हम जल में पत्थर फेंकते हैं, तो तरंगें उठती हैं। इसी प्रकार जब हम किसी विषय पर विचार करते हैं, तो वहां भी तरंगें उठती हैं। ये तरंगें पूरे वातावरण में उठती हैं, जो अनंत दिशाओं तक फैल जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि विचार अणु के समान स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है। और सूक्ष्म की कोई सीमा नहीं होती। शायद इसीलिए फ्रांसीसी वैज्ञानिक थाम्पसन ने कहा था कि पृथ्वी पर हम एक फूल तोड़ते हैं, तो उसकी चटक अंतरिक्ष में सुनाई पड़ती है, क्योंकि वह सूक्ष्म है।
विचार ऊर्जा है और ऊर्जा को ही एनर्जी कहते हैं। ऊर्जा का कभी नाश नहीं होता, केवल उसका रूप बदल जाता है। शायद इसीलिए संतों के आश्रम के चारों ओर इसी सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र व्याप्त रहता है और मनुष्य जब उस वातावरण में प्रवेश करता है, तो उस वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा से स्वयं प्रभावित होने लगता है। उसे महसूस होने लगता है कि उसके अशांत मन को यहां बड़ी शांति मिल रही है। इसका वैज्ञानिक कारण है कि मनुष्य जब उस क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो वहां के वातावरण का प्रभाव उसके शरीर पर पड़ने लगता है और उसके शरीर में जैविक परिवर्तन होने लगता है। आइंस्टीन कहते हैं कि जब विचार से ठोस पदार्थ के अणु प्रभावित हो सकते हैं, तो हमारा शरीर क्यों नहीं प्रभावित हो सकता है?
[ आचार्य सुदर्शन ]

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