समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के खतरे, बहस को प्राथमिकता देकर नई चुनौतियों को आमंत्रण

समलैंगिक विवाह के संदर्भ में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि कानूनी मान्यता प्राप्त होने पर ऐसे युगलों के संबंध कहीं अधिक स्थिर होंगे। हालांकि मैसाचुसेट्स के अध्ययन में पाया गया कि केवल एक साल या उससे कम में ही उन्होंने अपने रिश्ते को तोड़ने की बात की।

By Jagran NewsEdited By: Publish:Fri, 31 Mar 2023 12:42 AM (IST) Updated:Fri, 31 Mar 2023 12:42 AM (IST)
समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के खतरे, बहस को प्राथमिकता देकर नई चुनौतियों को आमंत्रण
समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के खतरे (फाइल फोटो)

डा. ऋतु सारस्वत: समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग कर रही याचिकाओं का केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया है। कहा है कि इसकी मान्यता से स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों में संतुलन प्रभावित होगा। यकीनन मूल्यों और परंपराओं को दकियानूसी कहने वाला सोच इसे भारत का पिछड़ापन कहेगा, परंतु समलैंगिक विवाह को मान्यता देने पर भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगे? यह विचारणीय बिंदु है।

परंपरागत रूप से विवाह और संतानोत्पत्ति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, परंतु एक वर्ग विवाह के प्रजनन अर्थ को खारिज करता है। यह कोई संयोग नहीं कि जिन देशों ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी है, वहां सबसे कम प्रजनन दर है। नीदरलैंड, स्वीडन और कनाडा में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता है और वहां की जन्म दर प्रति महिला लगभग 1.6 बच्चे हैं, जो 2.1 की प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत नीचे है।

जनसंख्या संबंधी अंतरराष्ट्रीय आंकड़े भी यही बता रहे हैं कि जिन दस देशों में अध्ययन के समय समलैंगिक विवाह को अनुमति थी, उनकी प्रजनन दर दुनिया के 193 देशों से कम थी। यहां संभवत: यह तर्क देने का प्रयास किया जाएगा कि कम जन्म दर का कारण विषम-लैंगिक युगलों द्वारा प्रजनन के प्रति घटती रुचि है, परंतु विभिन्न शोध इस तथ्य को इंगित कर रहे हैं कि समलैंगिक विवाह एक जन्म विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देता है और हम जानते हैं कि जनसंख्या में गिरावट समाज पर जबरदस्त सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तनाव डालती है।

समलैंगिक विवाह की पैरवी करने वाले यह तर्क देते हैं कि यद्यपि वे सामान्य रूप से बच्चों को जन्म नहीं दे सकते, परंतु बच्चों को गोद लेकर या शुक्राणु दान से वे अभिभावक बन सकते हैं और बच्चों की बेहतर परवरिश कर सकते हैं। ‘नो बेसिस : व्हाट द स्टडी डोंट टेल अस अबाउट सेम-लिंग पैरेंटिंग’ नामक शोध उन सभी शोधों पर प्रश्न उठाता है, जो निरंतर यह तथ्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि समलैंगिकों के बच्चे विषमलैंगिक अभिभावकों के बच्चों से बिल्कुल भिन्न नहीं हैं।

‘ए न्यू स्टडी आफ यंग एडल्ट्स कंसीव्ड थ्रू स्पर्म डोनेशन’ बताता है कि सामाजिक और आर्थिक सुनिश्चितता के बावजूद भी शुक्राणु दान के माध्यम से जन्म लिए बच्चों में जैविक माता-पिता की संतानों की अपेक्षाकृत मादक द्रव्यों का सेवन, अपराध की ओर झुकाव तथा अवसाद की आशंका अधिक रहती है।

वहीं आस्ट्रेलिया में हुए एक अध्ययन में विषमलैंगिक विवाहित जोड़ों के बच्चों की तुलना में समलैंगिक जोड़ों के बच्चों का प्रदर्शन सामाजिक एवं अकादमिक स्तर पर खराब पाया गया। समलैंगिक विवाह के वैधीकरण से उत्पन्न सबसे बड़ी त्रासदी वयस्कों पर नहीं, बल्कि बच्चों से जुड़ी है। समलैंगिक विवाह यह सिद्ध करने की चेष्टा है कि मातृहीन अथवा पितृहीन बच्चे समाज की वास्तविकता हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज स्वयं जानबूझकर बच्चों के लिए स्थायी रूप से मातृ अथवा पितृहीन परिवारों का विकल्प उपलब्ध करवाकर उनके भविष्य को अंधकार में धकेलने को तत्पर दिखाई दे रहा है।

समलैंगिक विवाह के संदर्भ में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि कानूनी मान्यता प्राप्त होने पर ऐसे युगलों के संबंध कहीं अधिक स्थिर होंगे। हालांकि मैसाचुसेट्स के अध्ययन में पाया गया कि केवल एक साल या उससे कम में ही उन्होंने अपने रिश्ते को तोड़ने की बात की। स्वीडन में पुरुषों की साझेदारी में तलाक का जोखिम विषमलैंगिक विवाह से संबंधित जोखिम की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक दिखाई दिया।

यदि समलैंगिक साझेदारी की अस्थिर प्रकृति विवाह के आदर्श का हिस्सा बन जाती है तो यह समाज की सामान्य विवाह पद्धति को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी। समलैंगिक संबंधों की पैरवी करने वालों का यह तर्क हो सकता है कि समाज के हित के लिए हम अपने व्यक्तिगत चुनाव का त्याग क्यों करें। एक क्षण को उनके इस विचार को स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी उन्हें उन तथ्यों से परिचित होना जरूरी है जिससे किंचित वे अपरिचित हैं।

‘होमोसेक्सुअलिटी एंड द पालिटिक्स आफ ट्रुथ’ के लेखक डा. जे. सतीनोवर बताते हैं कि समलैंगिक अपने जीवन में 25 से 30 वर्ष गानरिया (यौन संसर्ग से उत्पन्न रोग), सिफलिस, एड्स, आंत्र संक्रमण तथा अन्य यौन संचारित रोगों से ग्रस्त रहते हैं। ‘इंटरनेशनल जर्नल आफ एपिडेमियोलाजी’ में प्रकाशित शोध बताता है कि अन्य पुरुषों की तुलना में समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों की जीवन प्रत्याशा कम रहने की आशंका रहती है। यूएस सेंटर फार डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के 2010 के अनुसार समलैंगिक पुरुषों में अन्य की तुलना में नवीन एचआइवी के लक्षण की दर 44 प्रतिशत अधिक थी।

वहीं महिलाओं के साथ यौन संबंध रखने वाली महिलाओं में बैक्टीरियल जिनोसिस, हेपेटाइटिस सी और एचआइवी जोखिम व्यवहार की उच्च दर पाई गई है। जिन महिलाओं के बच्चे नहीं हुए हैं या जिन्होंने स्तनपान नहीं कराया, उनमें इसके आसार और अधिक हो जाते हैं। वहीं, शारीरिक ही नहीं, समस्याएं मनोरोगों की भी हैं। ‘नीदरलैंड्स मेंटल हेल्थ सर्वे एंड इंसिडेंस स्टडी’ में कहा गया है कि समान लिंग यौन व्यवहार करने वाले लोगों को मनोरोग विकारों के लिए अधिक जोखिम होता है।

इसलिए यह जरूरी है कि समलैंगिक जीवन की विशिष्टताओं के कारण उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के खतरों से उन्हें बचाया और चेताया जाए, न कि समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दों पर बहस को प्राथमिकता देकर नई सामाजिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों को आमंत्रित किया जाए।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)

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