पाकिस्तान पर फिर वही पुराना राग

मोदी पाकिस्तान को लेकर अपनी नीतियों से पलटकर वापस रिश्तों को सामान्य बनाने की राह पर लौटते दिख रहे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 15 Mar 2017 01:10 AM (IST) Updated:Wed, 15 Mar 2017 01:32 AM (IST)
पाकिस्तान पर फिर वही पुराना राग
पाकिस्तान पर फिर वही पुराना राग

ब्रह्मा चेलानी

पिछला साल काफी असामान्य था। पाकिस्तानी आतंकियों ने भारतीय सुरक्षा बलों के ठिकानों पर सिलसिलेवार ढंग से हमले किए। पठानकोट में हमला पड़ोसी मुल्क द्वारा नए साल के तोहफे सरीखा था जबकि उड़ी हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके जन्मदिन पर दिया गया उपहार। इससे पहले एक साल के दौरान भारतीय सुरक्षा ठिकानों पर कभी इतनी बड़ी तादाद में हमले नहीं हुए थे। ध्यान रहे कि बीते साल जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के साथ मुठभेड़ में 1990 के दशक के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षाकर्मी शहीद हुए।
पाकिस्तान आशंकित है कि डोनाल्ड ट्रंप की अगुआई वाला नया अमेरिकी प्रशासन उसके खिलाफ सख्त रुख अपना सकता है। लिहाजा उसने दिखावे के तौर पर आतंकी हाफिज सईद के खिलाफ कुछ कदम उठाए ताकि ऐसा आभास हो कि वह आतंकी समूहों पर कार्रवाई को लेकर गंभीर है। अगर ट्रंप पर पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की लंबे समय से चली आ रही उसी नीति पर टिके रहने का दबाव बढ़ा जिस पर उनके पूर्ववर्ती काम करते आए थे तो आने वाली गर्मियों में आतंक के खिलाफ भारतीय सुरक्षाकर्मियों का अभियान खासा खून-खराबे वाला हो सकता है। इस पृष्ठभूमि से इतर यह गौरतलब है कि मोदी पाकिस्तान को लेकर अपनी नीतियों से पलटकर वापस रिश्तों को सामान्य बनाने की राह पर लौटते दिख रहे हैं। सितंबर में उड़ी आतंकी हमले के बाद मोदी सरकार ने बड़े शोरशराबे के साथ स्थाई सिंधु आयोग(पीआइसी) पर सख्त रवैया दिखाया था। अब जल्द ही लाहौर में पीआइसी की बैठक आयोजित होगी जिसमें भारत भाग लेगा। पीआइसी 1960 के सिंधु जल समझौते (आइडब्ल्यूटी) के जरिये अस्तित्व में आया। यह सिंधु तंत्र की तीन नदियों के पानी पर पाकिस्तान के हिस्से को बढ़ाता है। इसके तहत भारत के हिस्से महज 19.48 प्रतिशत पानी आता है। इसे दुनिया का सबसे उदार जल साझेदारी समझौता माना जाता है। मोदी के यह कहने के बावजूद कि ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते’ पीआइसी को लेकर उनके फैसले से यही संकेत मिलता है कि वह इस संधि को रद करने या तब तक मुल्तवी करने के इच्छुक नहीं लगते जब तक पाकिस्तान आतंक के जरिये छद्म युद्ध को बंद कर दे। वास्तव में विश्व बैंक मोदी सरकार पर दबाव बना रहा है कि वह पीआइसी के जरिये पाकिस्तान के साथ किशनगंगा और रैटल पनबिजली परियोजना को लेकर किसी समझौते पर पहुंचे जिसमें पाकिस्तान इन परियोजनाओं के ढांचे में बदलाव की मांग कर रहा है। इनमें रैटल परियोजना का निर्माण कार्य अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है।

 कुछ अन्य घटनाक्रम भी पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार के नरम पड़ते तेवरों का संकेत करते हैं। इनमें सेवानिवृत्त पाकिस्तानी राजनयिक अमजद हुसैन सियाल की दक्षेस के नए महासचिव के तौर पर नियुक्ति भी शामिल है। इस पर भारत ने अपनी आपत्ति वापस ले ली थी। मोदी ने नवाज शरीफ के साथ जून में शंघाई सहयोग सम्मेलन (एससीओ) की बैठक से इतर वार्ता करने का विकल्प भी खुला रखा है। एससीओ की बैठक कजाकिस्तान के अस्ताना में होनी है। अपने वादों पर अमल करने को लेकर मोदी सरकार की हिचक तब और संदिग्ध नजर आती है जब उसने केरल में राजग उपाध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य राजीव चंद्रशेखर को पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करने से जुड़ा निजी सदस्य विधेयक वापस लेने के लिए कहा। जब पाकिस्तानी आतंकवाद से सबसे अधिक प्रताड़ित भारत ही उसे आतंकी देश घोषित करने से हिचकिचाएगा तो क्या इस मसले पर अमेरिका द्वारा कदम उठाने की उम्मीद करना मुनासिब होगा? अन्य शक्तियां भले ही भारत की स्थिति पर हमदर्दी जताएं, लेकिन भारत महज बातचीत के जरिये उनसे सम्मान हासिल नहीं कर पाएगा। पाकिस्तान के साथ सीमा-पार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अकेले भारत की है।
औपनिवेशिक दौर के बाद पहले इस्लामिक गणतंत्र के तौर पर अस्तित्व में आए पाकिस्तान ने अपने सृजन के साथ ही भारत के खिलाफ आक्रामक रवैया अख्तियार किया, लेकिन एक के बाद एक भारतीय सरकारें इस विश्वासघाती देश के खिलाफ निरंतरता वाली दीर्घकालिक नीति बनाने में नाकाम रहीं। पाकिस्तान के लिए भारत के खिलाफ परोक्ष युद्ध अभी भी सबसे सस्ता और प्रभावी विकल्प बना हुआ है। पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की ‘कुछ नरम-कुछ गरम’ नीति दर्शाती है कि पाकिस्तान के शातिर व्यवहार को सुधारने के लिए उसके पास कारगर रणनीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति या फिर दोनों की ही कमी है। मोदी की पाकिस्तान नीति में अहम मोड़ 2015 में क्रिसमस के दिन आया जब बिना किसी औपचारिक कार्यक्रम के वह लाहौर पहुंच गए थे। बिना किसी पूर्व तैयारी के हुआ उनका दौरा भी बेनतीजा ही निकला। अगर कुछ हुआ तो यही कि चंद दिन बाद ही पठानकोट एयरबेस और अफगानिस्तान में भारतीय वाणिज्य दूतावास आतंकी हमलों का निशाना बने। इस पर भारत की जवाबी कार्रवाई ने हालात बद से बदतर बना दिए। पठानकोट हमले के तुरंत बाद पाकिस्तान के साथ खुफिया जानकारियां साझा की गईं और उसे जांच टीम भेजने का आमंत्रण दिया। पाकिस्तान ने जांच टीम भेजी जिसे पठानकोट बेस में प्रवेश की इजाजत भी मिली। इसका अर्थ यही था कि भारत ने आइएसआइ नाम के उस संस्थान के साथ जानकारियां साझा कीं जिसे उसे काफी पहले ही आतंकी संगठन घोषित कर देना चाहिए था और जिसके हाथ न जाने कितने भारतीयों के खून से रंगे हुए हैं। 19 जवानों की शहादत वाले उड़ी हमले की प्रतिक्रिया में एक बार फिर मोदी लड़खड़ा गए। पाकिस्तान पर कुछ प्रतिबंध लगाने के बजाय वह जुबानी जमाखर्च में जुट गए। पाकिस्तानी अवाम से मुखातिब होते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो के भारत से 1000 साल तक जंग करने वाले जुमले का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि दोनों देशों को गरीबी, अशिक्षा जैसे मसलों के खिलाफ लंबी जंग छेड़ने की जरूरत है। उड़ी के बाद नवंबर में नगरोटा में आतंकी हमला हुआ जिसमें दो सैन्य अधिकारी और पांच जवान शहीद हो गए और मोदी खामोश ही रहे।
निश्चित रूप से मोदी ने सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये अपनी साख बचाने की कोशिश की जिसे सितंबर के अंत में अंजाम दिया गया। इसमें भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को पार कर आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, मगर यह स्पष्ट है कि ऐसी इक्का-दुक्का कार्रवाइयों से पाकिस्तान सीधा नहीं होगा। भारत को निरंतर दबाव बनाकर उसे साधने की जरूरत है। अभी भी मोदी के लिए देर नहीं हुई और पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने के लिए वह ऐसी नीतियां बना सकते हैं जिनकी पाकिस्तान को कूटनीतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से भारी कीमत चुकानी पड़े।
अगर पाकिस्तान परमाणु ढाल की आड़ में भारत पर परोक्ष युद्ध थोप सकता है तो परमाणु शक्ति-संपन्न भारत दुश्मन को उसकी मांद में ही गैर-पारंपरिक युद्ध के जरिये क्यों नहीं मात दे सकता? आखिर बलूचिस्तान, सिंध, गिलगित-बाल्टिस्तानऔर पश्तून जैसे इलाकों में अलग-अलग धाराओं के विभाजन को क्यों नहीं भुनाया जाता? भारत को सिंधु समझौते में एकतरफा बदलाव का डर दिखाकर भी पाकिस्तान की आक्रामकता को कुंद करना चाहिए।
[ लेखक सामरिक मामलों के जानकार और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर हैं ] 

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