समर्थन मूल्य की दोधारी तलवार, कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि सही दिशा में सही कदम

सरकार को चाहिए कि समर्थन मूल्य के स्थान पर किसान को सीधे सब्सिडी दी जाए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 16 Jul 2018 11:40 PM (IST) Updated:Tue, 17 Jul 2018 09:37 AM (IST)
समर्थन मूल्य की दोधारी तलवार, कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि सही दिशा में सही कदम
समर्थन मूल्य की दोधारी तलवार, कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि सही दिशा में सही कदम

[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने वादे के मुताबिक खरीफ की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी में लागत से डेढ़ गुना खरीद का दाम निर्धारित कर दिया। इससे किसानों को निश्चित रूप से लाभ होगा। सरकार के इस कदम की तीन बिंदुओं पर आलोचना भी की जा रही है। पहला बिंदु है कि इस मूल्यवृद्धि से महंगाई बढ़ेगी और आर्थिक विकास दर में गिरावट आएगी। यदि हमें किसानों का हित साधना है तो कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि जरूरी है और तदनुसार उससे बढ़ी महंगाई को हमें स्वीकार करना चाहिए। आलोचना का दूसरा बिंदु है कि केवल मूल्यवृद्धि ही पर्याप्त नहीं है।

ध्यान रहे कि कृषि उत्पादों की लागत की गणना करते समय किसान की ओर से किए गए नकद खर्च के साथ उसके परिवार द्वारा किए गए श्रम के मूल्य को भी जोड़ा जाता है। एक अन्य गणना में खेती की भूमि के किराये के साथ ट्रैक्टर आदि पर दिए गए ब्याज को भी शामिल किया जाता है। फिलहाल सरकार ने पहले स्तर पर इसकी गणना की है यानी इसमें नकद खर्च और परिवारिक श्रम के मूल्य को जोड़ा गया है। फिर भी यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सरकार ने कृषि उत्पादों के खरीद मूल्य में जो वृद्धि की है वह सही दिशा में उठाया गया कदम है।

तीसरी आलोचना इस आधार पर की जा रही है कि मूल्य वृद्धि से 80 प्रतिशत किसानों को लाभ नहीं होगा। देश में 80 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसान हैं जो अपने उत्पाद की खपत स्वयं करते हैं। वे अपना माल बाजार में नहीं बेचते हैं, बल्कि वे बाजार से कुछ खाद्यान्न खरीदते भी हैं। इसलिए कृषि उत्पादों की मूल्य वृद्धि से छोटे किसानों को लाभ के बजाय नुकसान होगा। यह बात सही है, किंतु बड़े किसानों को मूल्य वृद्धि से जो लाभ होता है उसका एक अंश बढे़ हुए वेतन के रूप में छोटे किसानों को भी मिलता है। ऐसे में ये सभी आलोचनाएं एक तरह से निराधार हैं। समर्थन मूल्य में वृद्धि को हमें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

मूल बात यह है कि वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के दाम गिर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ द्वारा खाद्य उत्पादों के मूल्य का एक वैश्विक सूचकांक बनाया जाता है। यह सूचकांक वर्ष 2011 में 229 अंक के स्तर पर था जो वर्तमान में 173 अंक पर आ गया है। इससे ज्ञात होता है कि वैश्विक स्तर पर खाद्य उत्पादों के मूल्य में गिरावट आ रही है। इस परिस्थिति में हम यदि अपने खाद्य उत्पादों के दाम बढ़ाएंगे तो अपने देश में दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रचलित दाम से अधिक होंगे।

देश में खाद्य उत्पादों की मांग सीमित है और उसे हम पूरा कर रहे हैं। बढ़े हुए उत्पादन का हमें आखिरकार निर्यात ही करना पड़ेगा और इस निर्यात के लिए सरकार को सब्सिडी देनी पड़ेगी। कुछ वर्ष पूर्व भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ के पास गेहूं के भंडारण के लिए जगह कम पड़ गई थी जिसके कारण उसे खुले में रखना पड़ा था। खुले में रखे उस गेहूं के सड़ने पर काफी हंगामा भी हुआ था। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि गेहूं के इस भंडार को सड़ाने के बजाय क्यों न उसे जनता में मुफ्त बांट दिया जाए? यही हालात फिर से पैदा हो सकते हैैं। समर्थन मूल्य के माध्यम से किसानों का हित साधने में मूल समस्या यह है कि विश्व स्तर पर कृषि उत्पादों के दाम गिर रहे हैं और उसके उलट अपने देश में कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाकर उत्पादन बढ़ाने से इस उत्पादन के निष्पादन की समस्या उठ खड़ी होगी।

हमें एक और समस्या का सामना करना पड़ सकता है। वह यह कि अन्न उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करते हैं। जैसे भूमि में रासायनिक उर्वरक डालकर हम भूमि की दीर्घकालीन उर्वरता को नष्ट करने पर आमादा हैं। इसी तरह सिंचाई के लिए पानी की अधिक खपत करके अपने संसाधनों का अति दोहन करते हैं। इस प्रकार समर्थन मूल्य में वृद्धि से दो प्रकार की हानि होती है। एक यह कि बढ़े हुए उत्पादन को कम दाम पर निर्यात करने से सरकार पर अधिक बोझ पड़ता है। दूसरा यह कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन करते हैं।

मेरी दृष्टि से इस समस्या के समाधान के दो पहलू हैं। पहला यह कि किसान का हित फसलों के दाम में वृद्धि करने के बजाय किसान को भूमि के आधार पर अथवा ग्रामीण क्षेत्र में मकान में रिहाइश के आधार पर एक रकम प्रति वर्ष दी जाए। मेरी गणना के अनुसार इस समय सरकार द्वारा किसानों को हजारों करोड़ रुपये की सब्सिडी विभिन्न मदों में दी जा रही है। इनमें खाद्य सब्सिडी, उर्वरक सब्सिडी और बिजली सम्मिलित है।

यदि सरकार इन सब्सिडी को समाप्त कर दे तो सरकार को हजारों करोड़ रुपये की रकम प्रति वर्ष उपलब्ध हो सकती है। इसे देश के दस करोड़ किसान परिवारों में वितरित कर दिया जाए तो प्रति किसान को 50 हजार रुपये की रकम हर वर्ष दी जा सकती है जो उनकी मूल आजीविका के लिए पर्याप्त होगी। इसके बाद समर्थन मूल्य प्रणाली पूरी तरह खत्म कर देनी चाहिए और किसान को बाजार के अनुसार उत्पादन करने देना चाहिए। यदि वैश्विक दाम में गिरावट आ रही है तो किसान भी अपना उत्पादन कम करें। इससे हमारे प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन भी बंद हो जाएगा। इससे सरकार के ऊपर भी निर्यात का अतिरिक्त बोझ नही पड़ेगा।

इसी समस्या का दूसरा बिंदु कृषि उत्पादों की कीमतों में तात्कालिक उतार-चढ़ाव है। अक्सर वर्षा के अभाव में किसी कृषि उत्पाद के दाम बहुत अधिक बढ़ जाते हैं या बंपर उत्पादन से घट जाते हैं। इस उतार-चढ़ाव से किसान बहुत व्यथित होते हैं। इसका उपाय यह है कि सरकार को भारतीय खाद्य निगम को फूड ट्रेडिंग कॉरपोरेशन या खाद्य उत्पाद व्यापार निगम में रूपांतरित कर देना चाहिए। जब किसी कृषि उत्पाद के दाम गिर जाएं तो यह निगम उन्हें खरीदकर उनका भंडारण करे और जब दाम बढ़ें तो उसे बेचे। इस प्रकार कृषि उत्पादों के दाम में उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करके एक सामान्य और आसान तंत्र स्थापित किया जा सकता है।

सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि एक अच्छा कदम है जिसका स्वागत होना चाहिए, परंतु बढ़े हुए उत्पादन के निष्पादन की समस्या बनी रहेगी। अत: इसके आगे सोचने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि समर्थन मूल्य के स्थान पर किसान को सीधे सब्सिडी दी जाए। कृषि उत्पादों के मूल्य में उतार-चढ़ाव के लिए खाद्य उत्पाद व्यापार निगम की स्थापना करे। तब हम अपने किसानों को राहत दे सकेंगे और अपने प्राकृतिक संसाधनों को सहेजने में भी कामयाब होंगे।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]

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