आत्मनिर्भरता का रिकॉर्ड: जो सड़क मजदूरों ने बनाई थी उसी पर सैकड़ों किमी पैदल चलकर गांव पहुंचे

मजदूरों का अंगोछा बहुउद्देशीय है। जब गम छा जाता है तो आंसू पोछ लेता है भूख लगती है तो पेट पर बांध लेता है कोरोना का डर सताया तो मुंह ढक लेता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sat, 23 May 2020 11:29 PM (IST) Updated:Sun, 24 May 2020 12:19 AM (IST)
आत्मनिर्भरता का रिकॉर्ड: जो सड़क मजदूरों ने बनाई थी उसी पर सैकड़ों किमी पैदल चलकर गांव पहुंचे
आत्मनिर्भरता का रिकॉर्ड: जो सड़क मजदूरों ने बनाई थी उसी पर सैकड़ों किमी पैदल चलकर गांव पहुंचे

[ पंकज प्रसून ]: देश चाहे जब आत्मनिर्भर बने, मैं खुद समेत तमाम लोगों को आत्मनिर्भर बनते देख रहा हूं। लोग उन कामों में हाथ आजमाने से भी गुरेज नहीं कर रहे जिनके बारे में पहले उन्हें सोचना तक गवारा नहीं होता था। वास्तव में यह लॉकडाउन आत्मनिर्भरता के लिए स्वर्णिम काल सिद्ध हो रहा है। मेरे घर का हाल कुछ ऐसा था कि काम वाली बाई के बिना आधा दिन भी नहीं पार होता था। अगर वह आकर बर्तन न मांजे तो खाना नहीं बनता था और अब मैं सुबह-शाम बड़े मजे से गुलजार के गीतों को गाते हुए बर्तनों को चमकाता हूं। कड़ाही की चमक देखकर बीवी के चेहरे पर भी चमक आ जाती है। और तो और बच्चों के बाल काटना भी सीख लिया है।

आत्मनिर्भरता में आनंद और  दिव्य अनुभव होने लगे हैं

अब आत्मनिर्भरता में आनंद भी आने लगा है और दिव्य अनुभव होने लगे हैं। झाड़ू लगाते समय इड़ा पिंगला जागृत होती प्रतीत होती हैं। पोछा लगाते हुए लगता है कि हठयोग की चरम अवस्था को प्राप्त कर रहा हूं। तीन किलोमीटर की दौड़ उतना प्रभाव नही दिखा पाई जितना एक घंटे के पोछे ने कर दिखाया है। सुना है कि बीएमआइ ठीक हो तो ईएमआइ की चिंता भी नहीं सताती। मैं अब तक खुद को महज पति ही समझता था, लेकिन अब यह महसूस होता है कि मैं नल की टूटी टोंटी बना देने वाला प्लंबर भी हूं, शॉर्ट सर्किट को ठीक करने वाला इलेक्ट्रिशियन भी हूं और बेड के टूटे पावदान जोड़ देने वाला बढ़ई भी।

कोरोना काल में लॉकडाउन ने पत्नी को बना दिया आत्मनिर्भर 

इस बीच पत्नी भी जबरदस्त आत्मनिर्भर हुई है। उनके जीवन में ब्यूटी पार्लर की जगह अब ब्यूटी टिप्स ने ले ली है। दही, मक्खन, नींबू, मैदा आदि को पहले खाद्य सामग्री समझता था, लेकिन ये तो सौंदर्य प्रसाधन निकले। फेस क्रीम खत्म हो गई तो मनी प्लांट के गमले में एलोवेरा दिखने लगे। कोरोना काल में बच्चे के अंदर भी स्वावलंबन आ गया है। अब उसे खेलने के लिए पड़ोस के बच्चों की जरूरत नहीं रह गई है। प्लेग्राउंड की जगह प्लेस्टोर ने ले ली है। लॉकडाउन ने उसे गेम डाउनलोड करना और बखूबी खेलना भी सिखा दिया है। क्रिकेट, टेनिस, खो-खो से लेकर स्र्विंमग तक ऑनलाइन ही सीख कर खेल रहा है।

मरीजों की आत्मनिर्भरता

मरीजों की आत्मनिर्भरता पर किसी को शक नहीं होना चाहिए। अब वह तमाम सारे रोग बिना हॉस्पिटल जाए घर पर ही ठीक कर लेता है। उसे अरस्तू के कथन पर पूरा विश्वास है-डॉक्टर तो सिर्फ इलाज करता है, ठीक प्रकृति करती है। दृष्टि ऐसी बदली है कि आसपास के घास-फूस उसे औषधियों के भंडार लगने लगे हैं। बगीचे के नीम में वह धन्वंतरि को महसूस करता है। हल्के से बुखार में हॉस्पिटल का रुख करने वाला अब हार्ट की बीमारी भी हल्दी खाकर ठीक कर ले रहा है। कुछ तो काढ़े से वैक्सीन बना देने का दावा भी कर रहे हैं।

समय भी बचता है और पैसा भी

प्रेमी-प्रेमिका भी आत्मनिर्भर हो चले हैं। अब वे कॉफी डे, पिज्जा हट, बरिस्ता आदि नहीं जा रहे। अब तो आत्मनिर्भर प्रेमी पकौड़ी बनाकर ले आता है और प्रेमिका हलुआ। दोनों जमाने भर से किसी तरह छिपते-छुपाते गली में ही मिल लेते हैं। समय भी बचता है और पैसा भी।

मजदूरों ने आत्मनिर्भरता का रिकॉर्ड कायम किया, मजदूरों का बहुउद्देशीय अंगोछा

हमारी गली में फेरी लगाने वाले कबाड़ी वाले ने जबसे सुना है कि लोकल, वोकल, ग्लोबल का जमाना आ गया तबसे उसने अपनी आवाज और तेज कर दी है। मजदूरों ने तो आत्मनिर्भरता का रिकॉर्ड कायम किया है। जो सड़क उसने बनाई थी उसी पर सैकड़ों किलोमीटर चलता जा रहा है। जिंदगी उसकी पटरी पर न आ पाई, लेकिन वह पटरी पर है। न बस की जरूरत है न ट्रेन की। अपनी साइकिल, अपना ठेला अपने पांव और चल दिया है अपने गांव। वह भोजन के मामले में भले आत्मनिर्भर नहीं है, लेकिन भूख के मामले में उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। उसका अंगोछा बहुउद्देशीय है। जब गम छा जाता है तो आंसुओं को पोछ लेता है, भूख लगती है तो पेट पर बांध लेता है, कोरोना का डर सताता है तो मुंह को ढक लेता है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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