राहुल गांधी के सपनों का भारत, यह राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा!

राहुल को भारत की पहचान श्रीराम के जन्मभूमि मंदिर जाना भी स्वीकार नहीं। उनके लिए बहुसंख्यक हिंदू सांप्रदायिकता के पर्याय हैं परंतु वह ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित तत्वों के खिलाफ अक्सर मौन रहते हैं। उनके ‘जितनी आबादी उतना हक’ सरीखे विचार में राष्ट्रीय पहचान ‘भारतीयता’ गौण होकर जाति प्रमुख हो जाती है। इससे हिंदू समाज में जाति विभाजन की खाई और गहरी होगी। यह राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Thu, 18 Apr 2024 12:18 AM (IST) Updated:Thu, 18 Apr 2024 12:18 AM (IST)
राहुल गांधी के सपनों का भारत, यह राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा!
राहुल गांधी के सपनों का भारत, यह राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा! (File Photo)

बलबीर पुंज। लोकसभा चुनाव की गहमागहमी चरम पर है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री मोदी के सबसे मुखर आलोचक बनकर उभरे हैं। मोदी का विरोध उनकी पार्टी और व्यक्तित्व के अनुरूप ही है, लेकिन सवाल यही है कि राहुल कैसा भारत बनाना चाहते हैं? इसकी झलक उनके कुछ हालिया बयानों और कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र से मिल जाती है। बीते दिनों तेलंगाना में एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल ने कहा कि हम फाइनेंशियल और इंस्टीट्यूशनल सर्वे से पता लगाएंगे कि देश का धन किसके और कौन से वर्ग के हाथ में है, जो आपका हक बनता है, वह हम आपको देने का काम करेंगे।

इसके जरिये राहुल देश की समृद्धि बढ़ाने के स्थान पर उसके पुनर्वितरण की बात कह रहे हैं। यह नीति कोई नई नहीं है। वास्तव में यह राहुल का मौलिक राजनीतिक-वैचारिक चिंतन भी नहीं। वह उस उधार के दर्शन का प्रतिबिंब है, जिसे 1969-71 में उनकी दादी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने वामपंथियों से राजनीतिक समझौते के अंतर्गत आउटसोर्स किया था। उस समय के भारत में भुखमरी और महंगाई के साथ टेलीफोन, सीमेंट, इस्पात, कार-स्कूटर से लेकर दूध-चीनी, तेल-अनाज आदि खाद्य वस्तुओं की कालाबाजारी और उसके लिए लगने वाली लोगों की लंबी-लंबी कतारें दिखती थीं।

गरीबी हटाने और समानता लाने हेतु देश में 97.7 प्रतिशत तक आयकर था। इस मार्क्स-लेनिन-स्टालिन प्रेरित समाजवादी व्यवस्था से देश में कालाधन, भ्रष्टाचार, गरीबी और कपट कई गुना बढ़ गया। स्थिति इतनी विकट हो गई कि 1991 में देश को अपनी देनदारियों को पूरा करने हेतु विदेशी बैंकों में अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। इस अभिशाप रूपी वाम-विचारधारा से तब भारत ही ग्रस्त नहीं था।

चीन में माओ (1949-76) और कंबोडिया में पोल पाट का शासनकाल (1975-79) भी इसी चिंतन का भयावह परिणाम देख चुका है। वहां भी सामाजिक-आर्थिक अन्याय को समाप्त करने हेतु निजी संपत्ति-स्वामित्व और धन-संपदा को समाप्त कर दिया था। ऐसे अव्यावहारिक उपायों से न केवल मानवाधिकारों का भीषण हनन हुआ, अपितु करोड़ों लोगों की मौत तक हो गई।

आज चीन इसीलिए चमक रहा है, क्योंकि चीनी सत्ता अधिष्ठान समय को भांपते हुए अपनी विशुद्ध वाम-नीतियों को दशकों पहले तिलांजलि दे चुका है। वर्तमान भारत भी पिछली सदी के अंतिम दशकों तक जारी नीतियों से उपजी लचर स्थिति से बाहर निकलकर विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और शीघ्र ही तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कालबाह्य वामपंथी जुमले अब भारतीय जनमानस को आकर्षित नहीं करते। आज का युवा आकांक्षावान है। वह समृद्धि और आर्थिक विकास को लांछित नहीं, अपितु अपनाना चाहता है। इस आमूलचूल परिवर्तन में नीतिगत सुधारों के साथ भारतीय उद्यम क्षमता की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे एक समय पनपने नहीं दिया गया।

करीब 50 वर्ष पहले जिन अपशब्दों से वामपंथी-पश्चिमी समूह टाटा-बिरला जैसे औद्योगिक समूहों को निशाने पर रखते थे, वही अब अंबानी-अदाणी समूह के लिए उपयोग होते हैं। दिलचस्प यह है कि राहुल गांधी भारतीय औद्योगिक घरानों को तो कोसते है, परंतु विदेशी कंपनियों के खिलाफ वैसी मुखरता नहीं दिखाते। भीषण कोरोना काल में स्वदेशी कोविड टीके के बजाय विदेशी वैक्सीन पर राहुल का अधिक विश्वास इसका एक प्रमाण है। इसका कारण क्या है? क्या राहुल औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हैं?

राहुल गांधी भारत को राष्ट्र के बजाय ‘राज्यों का संघ’ बता चुके हैं। यह विचार उन्हीं विदेशी विचारधाराओं के अनुरूप है, जिसमें देश के मूल सनातन दर्शन, संस्कृति, पहचान और इतिहास के प्रति हीन-भावना और भारत को ‘राष्ट्र’ नहीं मानने का चिंतन है। जब राहुल के सहयोगी दल द्रमुक के नेताओं ने खुलकर ‘सनातन को मिटाने’ का आह्वान किया, तब वह न केवल चुप रहे, अपितु उनकी पार्टी के कार्ति चिदंबरम और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खरगे इसका समर्थन करते नजर आए।

राहुल को भारत की पहचान श्रीराम के जन्मभूमि मंदिर जाना भी स्वीकार नहीं। उनके लिए बहुसंख्यक हिंदू सांप्रदायिकता के पर्याय हैं, परंतु वह ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित तत्वों के खिलाफ अक्सर मौन रहते हैं। इसी प्रकार उनके ‘जितनी आबादी, उतना हक’ सरीखे विचार में राष्ट्रीय पहचान ‘भारतीयता’ गौण होकर जाति प्रमुख हो जाती है। इससे हिंदू समाज में जाति विभाजन की खाई और गहरी होगी। यह राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा।

इधर राहुल गांधी भाजपा के जीतने पर जिस संविधान के बदलने-खत्म करने का खौफ दिखा रहे हैं, उसकी पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि भारतीय संविधान में सौ से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं, जिनमें से अधिकांश कांग्रेस ने ही किए हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राहुल गांधी ने 2013 में अपनी सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को सार्वजनिक रूप से फाड़कर फेंक दिया था। असल में राहुल ‘विशेषाधिकार की भावना’ से ग्रस्त हैं कि केवल उन्हें ही कोई भी विचार रखने और अपने अनुकूल ‘लोक’ (जनमानस) और ‘तंत्र’ (मीडिया-न्यायालय सहित) चलाने का ‘दैवीय अधिकार’ है।

अब राहुल को मोदी का विकल्प बनना, उनसे वैचारिक-राजनीतिक रूप से अलग दिखना है। इस होड़ में वह जो वादे और विचार प्रस्तुत कर रहे हैं, उसमें भारत कैसा होगा? क्या लोकलुभावन नीतियों के नाम पर सरकारी नियंत्रण और लाइसेंस राज की वापसी होगी, जिसमें अतीत के दौर की तरह रोजमर्रा की वस्तुओं की कमी के साथ कालाबाजारी, गरीबी, महंगाई, भुखमरी और भ्रष्टाचार चरम पर था?

क्या उनके विचारों पर चलने वाली सरकार भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनाएगी या उस स्थिति में पहुंचा देगी, जब देश की आर्थिकी तबाह हो गई थी? क्या पाकिस्तान और श्रीलंका में बदहाली का कारण इसी प्रकार की राजनीति नहीं रही? इस पर विचार करते हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत की तस्वीर कैसी होगी? क्या वह प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प के अनुरूप बनेगी, जिसमें देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र के रूप स्थापित करने का लक्ष्य है या फिर वैसी जिसका तानाबाना राहुल गांधी बुन रहे हैं? इसका उत्तर मतदाताओं के विवेक पर निर्भर है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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