अस्वीकार्य है पुलिस की अक्षमता, अपराधियों को समय रहते कड़ा संदेश देने की है जरूरत

जब अपराधी बेखौफ होकर विचरण करते हैं और कानून अपने हाथ में लेते हैं तब जनता में यही धारणा बनती है कि शासन-प्रशासन उनके आगे बेबस है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 04 Sep 2020 06:20 AM (IST) Updated:Fri, 04 Sep 2020 06:20 AM (IST)
अस्वीकार्य है पुलिस की अक्षमता, अपराधियों को समय रहते कड़ा संदेश देने की है जरूरत
अस्वीकार्य है पुलिस की अक्षमता, अपराधियों को समय रहते कड़ा संदेश देने की है जरूरत

[विक्रम सिंह]। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत एक पहेली बन गई है। इसे लेकर देश-विदेश में चर्चा छिड़ी हुई है। लोग तरह- तरह के कयास लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि मुंबई पुलिस ने आपराधिक अनुसंधान शुरू करने से पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है। यह कहने से पहले उसने पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक का भी इंतजार नहीं किया। दंड प्रक्रिया संहिता 174 के अंतर्गत उसने 65 से ज्यादा दिनों तक, जिस तरह इस मामले की जांच विवेचना की, उसका कोई औचित्य नहीं था।

मुंबई पुलिस ने फिल्म जगत की तमाम बड़ी हस्तियों से पूछताछ की, परंतु सुशांत सिंह के घर रहने वाले प्रमुख व्यक्तियों से पूछताछ करना जरूरी नहीं समझा, और वह भी तब जब उनकी मौत को लेकर चर्चा का माहौल गर्म था। मुंबई पुलिस ने मादक पदार्थों की प्राप्ति और सेवन के बारे में भी कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश नहीं की। सुशांत का मोबाइल फोन पुलिस के पास 25 दिनों तक रहा, पर उसने एसएमएस, वाट्सएप संदेश और कॉल डिटेल्स के जरिये साक्ष्य जुटाने की कोशिश नहीं की।

पुलिस की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह

इसी मामले में पटना में केस दर्ज होने के बाद बिहार पुलिस ने भी इसकी जांच शुरू कर दी। ऐसे में असमंजस की स्थिति बन गई और पुलिस की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर इस मामले की जांच सीबीआइ को दी गई। यह पहला अवसर नहीं है, जब पुलिस की कार्यपद्धति की आलोचना की गई हो। 

महाराष्ट्र पुलिस की कठोर आलोचना तब भी हुई थी, जब पालघर में उग्र भीड़ द्वारा दो साधुओं और उनके ड्राइवर की निर्मम हत्या कर दी गई थी। महाराष्ट्र में 24 मई को पुन: ऐसी ही एक घटना शिवाचार्य नामक साधु के साथ नांदेड़ में हुई। इसके बाद 29 मई को भी पालघर में एक साधु पर जानलेवा हमला हुआ। इन हमलों से यह स्पष्ट है कि स्थानीय पुलिस का अभिसूचना तंत्र या तो बिल्कुल ही निष्क्रिय था या पुलिस किन्हीं कारणों से इस दिशा में क्रियाशील नहीं हो पा रही थी, लेकिन बात केवल महाराष्ट्र पुलिस की ही नहीं है।

सवालों के निशाने पर है पुलिस

आज तो देश भर की पुलिस सवालों के निशाने पर है। इसी साल फरवरी में पूर्वी दिल्ली में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए, जो कई दिनों तक जारी रहे। इनमें 50 से अधिक लोग मारे गए। दिल्ली में इन दंगों के पहले कई हफ्तों से शाहीन बाग के साथ- साथ कई अन्य स्थानों पर उग्र धरने-प्रदर्शन चल रहे थे, फिर भी सभी जगहों पर पुलिस मूकदर्शक बनी रही और कोई पूर्व सूचना हासिल नहीं कर पाई। 

पुलिस की निष्क्रियता हुई उजागर

अभी हाल में बेंगलुरु में सोशल मीडिया की एक पोस्ट को लेकर भड़की हिंसा ने भी पुलिस की निष्क्रियता को उजागर किया। ये मामले पुलिस की निष्क्रियता के उदाहरण मात्र हैं, अन्यथा ऐसा कोई राज्य नहीं है, जहां कानून- व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाएं न घटती रहती हों। इन सभी घटनाओं में स्थानीय पुलिस ने वह नहीं किया, जो उससे अपेक्षा की जाती है। यदि मुंबई में समय रहते अपराध पंजीकृत हो गया होता और जांच के सार्थक प्रयास किए गए होते, तो किसी तरह की असमंजस की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती।

जब कभी पुलिस की जांच पर सवाल उठते हैं अथवा कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है, तो उसका मूल कारण पुलिस के पास वांछित अधिसूचना का अभाव होता है या फिर उसका संज्ञान लेकर जरूरी कार्रवाई करने को लेकर बरती जाने वाली उदासीनता। यह स्थिति किसी भी पुलिस बल और शासन-प्रशासन के लिए आत्मघात से कम नहीं है।

अपराधियों को समय रहते कड़ा संदेश देने की जरूरत

आखिर क्या कारण है कि दंगाई निडर होकर निरंतर जनजीवन अस्त- व्यस्त कर रहे हैं, राष्ट्र विरोधी नारे लग रहे हैं और राष्ट्र मूकदर्शक बनकर बैठा है। यह एक भयावह स्थिति है। आज अपराधियों को समय रहते यह कड़ा संदेश देने की जरूरत है कि उनकी अवांछित, राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ त्वरित एवं कठोर कार्रवाई की जाएगी। जीरो टॉलरेंस की बहुत बातें हो गईं। अब उसे जमीनी स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है। पुलिस कार्यप्रणाली में ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए पर्याप्त अभिलेखीकरण, दिशानिर्देश एवं परिपत्र उपलब्ध हैं।

आंतरिक सुरक्षा योजना प्रत्येक जनपद का एक अति महत्वपूर्ण अभिलेख होता है, जिसमें तनाव एवं अन्य आपात स्थिति में प्रभावी कार्रवाई के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश मौजूद हैं। इनका पूर्वाभ्यास महीने में एक बार किया जाना चाहिए और जहां कहीं त्रुटियां नजर आएं, उन्हें दूर किया जाना चाहिए, परंतु यह प्रक्रिया शायद ही कहीं पूरी की जाती है।


अपराधी दुस्साहस करने से पहले कई बार सोचेंगे 

प्रशासन एवं पुलिस के ये मौलिक उपकरण हैं, जिनके माध्यम से अपराध, अपराधियों एवं कानून-व्यवस्था को भलीभांति नियंत्रित किया जा सकता है। रही कानून की बात, तो रासुका, उत्तर प्रदेश गिरोह बंद अधिनियम, महाराष्ट्र ऑर्गनाइज्ड क्राइम कंट्रोल एक्ट आदि ऐसे प्रभावी अधिनियम हैं, जिनके उचित प्रयोग से न केवल अपराधियों में भय और आतंक व्याप्त होगा, अपितु उन्हें शरण देने वाले भी दुस्साहस करने से पहले कई बार सोचेंगे।

शासन-प्रशासन अपराधियों के आगे है बेबस

यह संतोष का विषय है कि उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई दंगाइयों से करने संबंधी अधिनियम लागू कर दिया गया है। कर्नाटक और अन्य प्रदेशों ने भी इस प्रकार का अधिनियम लाने की इच्छा व्यक्त की है। उम्मीद है कि जल्द से जल्द यह अधिनियम पूरे देश में लागू होगा। एक लुंज-पुंज कानून-व्यवस्था अपराधियों, चरमपंथियों, दंगाइयों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई करने में किंकर्तव्यविमूढ़ रहती है। इसके दूरगामी परिणाम और भी ज्यादा नकारात्मक होते हैं। जब अपराधी बेखौफ होकर विचरण करते हैं या फिर शरारती तत्व मनमाने तरीके से कानून अपने हाथ में लेते हैं, तब आम जनता में यही धारणा बनती है कि शासन- प्रशासन उनके आगे बेबस है। इस धारणा को तत्काल बदलने की आवश्यकता है।

इसके लिए कड़े अधिनियम, शीघ्र विवेचना, त्वरित न्यायिक प्रक्रिया एवं दंड आवश्यक हैं। इस कड़ी में हमें सर्वप्रथम पुलिस सुधार करना होगा। अभी पुलिस में लगभग 30 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। इन खाली पदों को जल्द भरा जाना चाहिए। पुलिस बल को उच्च कोटि का प्रशिक्षण भी देना होगा। उसे वैज्ञानिक अनुसंधान के तौर-तरीकों और रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ-साथ अत्याधुनिक उपकरणों से भी लैस करना होगा। बगैर ऐसा किए कानून के शासन की स्थापना कठिन है।

 

(लेखक उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रमुख रहे हैं)

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