मातृभाषा से ही निकलेगी प्रगति की राह, अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में भी हो शोध

मातृभाषा के अनन्य महत्व को जानने समझने के बाद भी हम उनके संरक्षण में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Thu, 20 Feb 2020 11:58 PM (IST) Updated:Fri, 21 Feb 2020 12:47 AM (IST)
मातृभाषा से ही निकलेगी प्रगति की राह, अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में भी हो शोध
मातृभाषा से ही निकलेगी प्रगति की राह, अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में भी हो शोध

[अतुल कोठारी]। यह पूर्णरूप से सत्य है कि मां, मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं हो सकता है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो कोई महिला कितनी भी श्रेष्ठ एवं सुंदर हो वह हमारी मां नहीं हो सकती। कोई देश कितना भी संपन्न एवं समृद्ध हो, परंतु वह हमारी मातृभूमि नहीं हो सकता। इसी प्रकार विश्व की अन्य कोई भी भाषा हमारी मातृभाषा नहीं हो सकती। इसे बांग्लादेश के लोगों ने सिद्ध किया है।

14 अगस्त, 1947 को भारत से अलग होकर पाकिस्तान स्वतंत्र देश बना तब पाकिस्तान के दो भाग थे। 1971 में पाक का विभाजन हो गया। पाकिस्तान से अलग होकर पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना। बांग्लादेश बनने का महत्वपूर्ण कारण भाषा बनी। पूर्वी पाकिस्तान की भाषा बांग्ला थी, लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने उस पर उर्दू थोपी, जिसका वहां जबरदस्त विरोध हुआ।

दबाने के लिए पाकिस्तान ने किए भरसक प्रयास

21 फरवरी, 1952 को ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ विश्वविद्यालय और चिकित्सा महाविद्यालय के छात्रों ने बांग्ला को वहां की राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। उसे दबाने के लिए पाकिस्तान ने भरसक प्रयास किए। छात्रों पर गोलियां तक चलाईं, जिसमें अनेक बंगाली छात्रों ने अपनी मातृभाषा के लिए बलिदान दिया। उनकी स्मृति में वर्ष 1999 से यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाना प्रारंभ किया।

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि भाषा मात्र संप्रेषण का माध्यम है। वहीं यूनेस्को के अनुसार भाषा मात्र संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान और उसकी संस्कृति, परंपरा एवं इतिहास का कोश है। इसके साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को संजोने का कार्य भी मातृभाषा ही करती है। बांग्लादेश में हुए उस आंदोलन ने भी यह बात सिद्ध की कि मातृभाषा का महत्व मजहब, जाति आदि से भी अधिक है। जब कहीं कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ एक संस्कृति और परंपरा पर भी पूर्ण विराम लग जाता है।

1961 की जनगणना के अनुसार भारत में थी 1652 भाषाएं

आवश्यकता केवल इसकी ही नहीं है कि मातृभाषा के महत्व को समझा जाए। आवश्यकता इसकी भी है कि उनके संरक्षण के प्रयास किए जाएं। यह ठीक नहीं कि मातृभाषा के अनन्य महत्व को जानने-समझने के बाद भी हम उनके संरक्षण एवं संवद्र्धन में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थीं। 1971 आते-आते यह संख्या 808 तक रह गई। भारत सरकार द्वारा की गई 2011 की जनगणना के अनुसार देश में भाषा के मानक पर खरी उतरने वाली 1369 बोलियां/भाषाएं थीं। इसमें से 121 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक है। इसी में आठवीं अनुसूची की 22 भाषाएं भी सम्मिलित हैं।

 2013 के अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएं

पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के वर्ष 2013 के अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएं हैं। पिछले 50 वर्ष में यहां 220 से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं तथा 197 लुप्तप्राय होने के कगार पर हैं यही स्थिति दुनिया के अन्य अनेक देशों में हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मातृभाषाएं तेजी से विलुप्त हो रही हैं। सबसे अधिक खतरा उन भाषाओं को है जो छोटे समूहों द्वारा बोली जाती हैं।

कुछ विद्वानों का मानना है कि मां की भाषा ही मातृभाषा है। यह पूर्ण सत्य नहीं है, मां की भाषा के साथ-साथ बच्चे का शैशव/बचपन/बाल्यावस्था जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव होता है। जिस परिवेश, परिवार एवं उसके सांस्कृतिक मूल्यों में बच्चे पलते हैं, वहां जो भाषा वह सीखता है वह भाषा उस बच्चे की मातृभाषा कहलाती है। इस प्रकार मातृभाषा मात्र भावनात्मक विषय नहीं है, परंतु पूर्णरूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। इस दृष्टि से शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में हो, यह जरूरी है।

विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर डाला भार 

यूनेस्को सहित वैश्विक स्तर पर भाषा संबंधी हुए अनेक अध्ययनों, शिक्षा संबंधी संस्थाओं की अनुशंसाएं एवं राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय महापुरुषों के विचार इसकी पुष्टि करते हैं। गांधीजी ने कहा था कि विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बना दिया और वे सृजन के लायक नहीं रहे हैं। विदेशी भाषा ने देसी भाषाओं के विकास को बाधित किया है।

अंग्रेजी के दलदल में फंसते जा रहे

सभी प्रकार के वैज्ञानिक तथ्य एवं प्रमाण मातृभाषा के पक्ष में होने के उपरांत भी हम अंग्रेजी के मोहजाल से मुक्त होने के बदले उस दलदल में फंसते ही जा रहे हैं। यदि आज हम शोध-अनुसंधान में पिछड़ रहे हैं तो इसका एक बड़ा कारण शोध-अनुसंधान का माध्यम अंग्रेजी भाषा होना है। भारतीय वैज्ञानिक सीवी श्रीनाथ शास्त्री के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वालों की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र अधिक उत्तम अनुसंधान करते हैं। इस कथन की सत्यता को प्रमाणित करने की दृष्टि से भारतीयों को प्राप्त नोबेल पुरस्कार और अपनी भाषा में शिक्षा देने वाले देश इजरायल, जापान, जर्मनी आदि के विद्वानों द्वारा प्राप्त नोबेल पुरस्कारों की तुलना करने से स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है। यदि ये देश अपनी मातृभाषा के माध्यम से उल्लेखनीय प्रगति कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते?

अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में भी हो शोध

उचित यह होगा कि देसी विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में शोध अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में हों अथवा जो भी शोध अंग्रेजी में होते हैं उनका किसी एक भारतीय भाषा में अनुवाद अनिवार्य हो। चूंकि इन बातों का आधार शिक्षा है, इसके लिए जरूरी है कि देश में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा हो एवं उच्च शिक्षा के सभी स्तर पर भारतीय भाषाओं का विकल्प दिया जाना चाहिए। हमारे छात्र समझदार होने के बाद अपनी क्षमता के अनुसार दूसरी भाषाएं सीख सकते हैं। इसके लिए व्यवस्था एवं अवसर दोनों होने चाहिए, परंतु शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए। इसी से छात्रों का एवं देश का सही दिशा में विकास संभव हो सकेगा।


(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के सचिव हैं) 

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